सूर्य पुत्र कर्ण
छद्म वेश से विद्या सीखी
करके विप्र रूप धारण
सत्य सामने जब आया तो
किया क्रोध ने सब जारण।
एक वीर अद्भुत योद्धा का
भाग्य बेड़ियों जकड़ा था
जन्म लिया सभ्राँत कोख पर
फँसा जाल में मकड़ा था
आहत मन और स्वाभिमानी
उत्ताप सूर्य के जैसा
बार-बार के तिरस्कार से
धधक उठा फिर वो कैसा
नाग चोट खाकर के बिफरा
सीख रहा विद्या मारण।।
दान वीर था कर्ण प्रतापी
शोर्य तेज से युक्त विभा
मन का जो अवसाद बढ़ा तो
विगलित भटकी सूर्य प्रभा
माँ के इक नासमझ कर्म से
रूई लिपटी आग बना
चोट लगी जब हर कलाप पर
धनुष डोर सा रहा तना
बात चढ़ी थी आसमान तक
कर न सके हरि भी सारण।।
बने सारथी नारायण तो
युगों युगों तक मान बढ़ा
एक सारथी पुत्र कहाया
मान भंग की शूल चढ़ा
अपनी कुंठा की ज्वाला में
स्वर्ण पिघल कर खूब बहा
वैमनस्य की आँधी बहकर
दुर्जन मित्रों साथ रहा
चक्र फँसा सब मंत्र भूलता
चढ़ा शाप या गुरु कारण।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'