Friday, 31 December 2021

सूर्य पूत्र कर्ण


 सूर्य पुत्र कर्ण


छद्म वेश से विद्या सीखी

करके विप्र रूप धारण

सत्य सामने जब आया तो

किया क्रोध ने सब जारण।


एक वीर अद्भुत योद्धा का

भाग्य बेड़ियों जकड़ा था

जन्म लिया सभ्राँत कोख पर

फँसा जाल में मकड़ा था

आहत मन और स्वाभिमानी

उत्ताप सूर्य के जैसा

बार-बार के तिरस्कार से

धधक उठा फिर वो कैसा

नाग चोट खाकर के बिफरा

सीख रहा विद्या मारण।।


दान वीर था कर्ण प्रतापी 

शोर्य तेज से युक्त विभा

मन का जो अवसाद बढ़ा तो

विगलित भटकी सूर्य प्रभा

माँ के इक नासमझ कर्म से

रूई लिपटी आग बना

चोट लगी जब हर कलाप पर

धनुष डोर सा रहा तना

बात चढ़ी थी आसमान तक

कर न सके हरि भी सारण।।


बने सारथी नारायण तो

युगों युगों तक मान बढ़ा 

एक सारथी पुत्र कहाया

मान भंग की शूल चढ़ा

अपनी कुंठा की ज्वाला में

स्वर्ण पिघल कर खूब बहा

वैमनस्य की आँधी बहकर

दुर्जन मित्रों साथ रहा

चक्र फँसा सब मंत्र भूलता

चढ़ा शाप या गुरु कारण।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 28 December 2021

प्रतिबंधों से बाहर


 प्रतिबंधों से बाहर


आयु जिसमें दब गई है

वर्जना का बोझ भारी

हो स्वयं का ऐक्य निज से

नित हृदय चलती कटारी।।


आज तक तन ही सँवारा 

डोर इक मनपर बँधी थी

पूज्य बनकर मान पाया

खूँट गौ बनकर बँधी थी

हौसले के दर खुलेंगे

राह सुलझेगी अगारी।।


भोर की उजली उजासी

इक झरोखा झाँकती है

तोड़ने तमसा अँधेरा

उर्मि यों को टाँकती है

सूर्य की आभा पनपती

आस की खिलती दुपारी।।


तोड़कर झाँबा उड़े मन

बंध ये माने कहाँ तक

पंख लेकर उड़ चला अब

व्योम खुल्ला है जहाँ तक

आ सके बस स्वच्छ झोंका

खोल देगी इक दुआरी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


स्वयं का ऐक्य=निज की पहचान

अगारी=आगे की

दुपारी=दुपहरी

झाँबा=पिंजरा या कैद

दुआरी=छोटा दरवाजा

Saturday, 25 December 2021

दिखावा

दिखावा


मुक्ता छोड़ अब हंस 

चुनते फिरते दाना

रंग शुभ्रा आड़ में

रहे काग यश पाना।


बजा रहे हैं डफली

सरगम गाते बिगड़ी

बोल देवता जैसे

जलती निज की सिगड़ी

झूठी राग अलापे

जैसे हूँ हूँ का गाना।।


चमक-दमक बाहर की

श्वेत वस्त्र मन काला

तिलक भाल चंदन का

हाथ झूठ की माला‌

मनके पर जुग बीता

खड़ा बैर का ताना।।


बिन पेंदी के लोटे 

सुबह शाम तक लुढ़के 

हाँ में हाँ करते हैं

काम कहो तो दुबके

छोड़ा बदला पहना 

श्र्लाघा का नित बाना।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

 

Thursday, 23 December 2021

द्रोपदी का अपमान


 द्रौपदी का अपमान


मूक अधर काया कंपित पर

भेद विदित का डोल रहा था।

काल खड़ा था चुप चुप लेकिन

उग्र विलोचन तोल रहा था।


सभा नहीं थी वो वीरों की

चारों और शिखण्डी बैठे

तीर धनुष सब झुके पड़े थे

कई विदूषक भंडी बैठे

लाल आँख निर्लज्ज दुशासन

भीग स्वेद से खौल रहा था।।


आज द्रोपदी खंड बनी सी

खड़ी सभा के बीच निशब्दा

नयन सभी के झुके झुके थे

डरे डरे थे सोच आपदा

नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल

नेह हृदय कुछ बोल रहा था।।


ढेर चीर का पर्वत जैसा

लाज संभाले हरि जयंता

द्रुपद सुता के हृदय दहकती

पावक भीषण घोर अनंता

कृष्ण सखा गहरी थी निष्ठा

तेज दर्प सा घोल रहा था।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 20 December 2021

क्षितिज के पार।


 क्षितिज के पार


सौरभ भीनी लहराई

दिन बसंती चार।

मन मचलती है हिलोरें

सज रहें हैं द्वार।


नीले-नीले अम्बर पर

उजला रूप इंदु 

भाल सुनंदा के जैसे

सजता रजत बिंदु

ज्यों सजीली दुल्हन चली 

कर रूप शृंगार।।


मंदाकिनी है केसरी

गगन रंग गुलाब 

चँहु दिशाओं में भरी है

मोहिनी सी आब 

चाँद तारों से सजा हो

द्वार बंदनवार।।


चमकते झिलमिल सितारे

क्षीर नीर सागर

क्षितिज के उस पार शायद

सपनों का आगर

आ चलूँ मैं साथ तेरे 

क्षितिज के उस पार।।


 कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Saturday, 18 December 2021

रूपसी


 गीतिका (हिन्दी ग़ज़ल)


रूपसी


खन खनन कंगन खनकते, पांव पायल बोलती हैं।

झन झनन झांझर झनककर रस मधुर सा घोलती हैं।।


सज चली श्रृंगार गोरी आज मंजुल रूप धर के।

ज्यों खिली सी धूप देखो शाख चढ़ कर डोलती है।।


आँख में सागर समाया तेज चमके दामिनी सा।

रस मधुर से होंठ चुप है नैन से सब तोलती है।


चाँद जैसा आभ आनन केसरी सा गात सुंदर।

रक्त गालों पर घटा सी लट बिखर मधु मोलती है।।


मुस्कुराती जब पुहुप सी दन्त पांते झिलमिलाई।

सीपियाँ जल बीच बैठी दृग पटल ज्यों खोलती है।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 16 December 2021

नवजागरण


 नवजागरण


बीती बातों को बिसरादे

क्यों खारी यादों में रोता

हाथों से तू भाग्य सँवारे

खुशियों की खेती को जोता ।


शाम ढले का ढ़लता सूरज 

संग विहान उजाले लाता

साहस वालों के जीवन में

रंग प्रखर कोमल वो भरता

त्यागो धूमिल वसन पुराने

और लगा लो गहरा गोता।।


मन के दीप जला आलोकित

जीवन भोर उजाला भरलो

लोभ मोह सम अरि को मारो

धर्म ध्वजा को भी फहरालो

धरा भाव को समतल करके

उपकारी दानों को बोता।।


तम से क्यों डरता है मानव

नन्हा दीपक उस पर भारी 

अवसर को आगाज बनादे

करले बस ऐसी तैयारी

बीज रोप दे बंजर में कुछ

यूँ कोई होश नहीं खोता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 13 December 2021

फीकी ऋतुआँ


 फीकी ऋतुआ़ँ


आला लीला साँझ सकारा

कोर हिय के प्रीत जागे

पाहुनो घर आय रह्यो है

फागुनी सो रंग सागे।।


घणा दिना तक काग उडाया

बाँटां जोई है राताँ 

छैल भँवर बिन किने सुनावा

मन री उथली सी बाताँ

जल्दी आजो जी आँगन में

जिवडो उडतो ओ भागे।।


छोड़ गया परदेश साजना

चेत नहीं म्हारी लीनी

अमावस की राताँ काली

सावन री बिरखा झीनी

कितरी ऋतुआ बीती फीकी

गाँठ बा़ँधता धागे-धागे।।


 पिवसा सुनजो मन री मरजी

अब की चालूँ ली साथाँ

नहीं चाइजे रेशम शालू

ओढ़ रवाँ ला मैं काथाँ 

सुनो मारुजी बिन थांँरे तो

मेलों भी सूनो लागे।।


आला-लीला=गीला,सीला

बाँटा जोई = राह निहारना

छैल भँवर=पति

शालू = सुंदर वस्त्र

काँथा = पुराने कपड़ों से सिले वस्त्र

पिवसा=प्रिय ,पति

मारुजी=पति।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 10 December 2021

भावना के भँवर

भावना के भँवर


मन की गति कोई ना समझे

डोला घूमा हर कण हर कण।


कभी व्योम चढ़ कभी धरा पर

उड़ता फिरता मारा-मारा

मिश्री सा मधुर और मीठा

कभी सिंधु सा खारा-खारा

कोई इसको समझ न पाया

समझा कोई ये तो है तृण।।


कभी दूर तक नाता जोडे

नहीं सुधी है कभी पास भी

सन्नाटे में भटका खाता

कभी दमक की लगे आस भी

कैसे-कैसे स्वांग रचाए

मिलता है जाकर के मृण-मृण।।


नर्म कभी फूलों सा कोमल

कभी लोहे सा कठिन भारी 

मोह फेर में पड़ता प्रतिपल

कभी निर्दयी देता खारी

भावना के गहरे भँवर में 

डूबे उभरे पल क्षण पल क्षण।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Friday, 3 December 2021

संशय से निकलो


 संशय से निकलो


नीड़ टूट कर बिखरा ऐसा

जीवन का रुख मोड़ दिया

भग्न हृदय के तारों ने फिर

तान बजाना छोड़ दिया।


संशय जब-जब बने धारणा

गहरी नींव हिला देता

अच्छे विद्व जनों की देखी 

बुद्धि सुमति भी हर लेता

बात समय रहते न संभली

शंका ने झकझोड़ दिया।।


आदर्शों के पात झड़े तब 

मतभेदों के झाड़ उगे

कल तक देव जहाँ रमते थे

शब्दों के बस लठ्ठ दगे

एक विभाजन की रेखा ने

पक्के घर को तोड़ दिया।।


गिरकर जो संभलना जाने

हिम्मत की पहचान यही

नये सूत्र में सभी पिरो दें    

हार मानते कभी नही

अपने नेह कोश से देखो

तिनका-तिनका जोड़ दिया।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

नियति


 नियति सब कुछ तो निश्चित किए बैठी है और हम न जाने क्यों इतराते रहते हैं खुद की कल्पनाओं, समझदारी, योजनाओं,और साधनों पर।

क्या कभी कोई पत्ता भी हिलता है हमारे चाहने भर से।

समय दिखता नहीं पर निशब्द अट्टहास करता है हमारे पास खड़ा ,हम समय के भीतर से गुजरते रहते हैं अनेकों अहसास लिए और समय वहीं रूका रहता हैं निर्लिप्त निरंकार।

वक्त थमा सा खड़ा रहता है और हम उस राह गुजरते हैं जिसकी कोई वापसी ही नहीं।

पीछे छूटते पलों में कितने सुख कितने दुख सभी पीछे छूटते हैं बस उनकी एक छाया भर स्मृति में कहीं रहती है।

और हम निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं समय खड़ा रहता है ठगा सा !!