Friday, 3 December 2021

संशय से निकलो


 संशय से निकलो


नीड़ टूट कर बिखरा ऐसा

जीवन का रुख मोड़ दिया

भग्न हृदय के तारों ने फिर

तान बजाना छोड़ दिया।


संशय जब-जब बने धारणा

गहरी नींव हिला देता

अच्छे विद्व जनों की देखी 

बुद्धि सुमति भी हर लेता

बात समय रहते न संभली

शंका ने झकझोड़ दिया।।


आदर्शों के पात झड़े तब 

मतभेदों के झाड़ उगे

कल तक देव जहाँ रमते थे

शब्दों के बस लठ्ठ दगे

एक विभाजन की रेखा ने

पक्के घर को तोड़ दिया।।


गिरकर जो संभलना जाने

हिम्मत की पहचान यही

नये सूत्र में सभी पिरो दें    

हार मानते कभी नही

अपने नेह कोश से देखो

तिनका-तिनका जोड़ दिया।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

23 comments:

  1. वाह!लाज़वाब सृजन।
    कभी कभी शब्द नहीं बनते की लिखूँ क्या।
    बहुत बहुत ही सुंदर।
    सादर

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    1. आपका स्नेह मेरा संबल है प्रिय अनिता और फिर लाजवाब शब्द खुद ही सब कुछ कह देता है।
      सस्नेह आभार आपका।

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  2. आदर्शों के पात झड़े तब

    मतभेदों के झाड़ उगे

    कल तक देव जहाँ रमते थे

    शब्दों के बस लठ्ठ दगे

    एक विभाजन की रेखा ने

    पक्के घर को तोड़ दिया।।

    यथार्थ का सटीक चित्रण करती उत्कृष्ट रचना । बहुत-बहुत शुभकामनाएं ।

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    1. आपकी विस्तृत विहंगम दृष्टि से रचना सार्थक हुई जिज्ञासा जी।
      हृदय तल से आभार।
      सस्नेह।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आलोक जी, उत्साहवर्धन हुआ।
      सादर।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
      सादर।

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  5. बहुत सुंदर सखि

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  6. बहुत खूब कहा कुसुम जी, संशय जब-जब बने धारणा

    गहरी नींव हिला देता

    अच्छे विद्व जनों की देखी

    बुद्धि सुमति भी हर लेता....जीते जी मारने के ल‍िए बड़ा अचूक मनोवैज्ञान‍िक हथ‍ियार है शंका।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका अलकनंदा जी ,आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      ढेर सारा स्नेह।

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  7. Replies
    1. हृदय से आभार आपका ज्योति बहन।
      सस्नेह।

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  8. बहुत ही उम्दा सृजन

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    1. बहुत बहुत आभार आपका उत्साहवर्धन हुआ आपकी उपस्थिति से।
      सादर।

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  9. बहुत सुन्दर सृजन है ...
    उंदर अभिव्यक्ति है ...

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय नासवा जी आपकी प्रतिक्रिया सदा रचना को गतिमान करती है ।
      सादर।

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  10. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका जेन्नी जी ब्लॉग पर आपको देख मन प्रफुल्लित हुआ सदा स्नेह बनाए रखें।
      सस्नेह।

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  11. आदर्शों के पात झड़े तब

    मतभेदों के झाड़ उगे

    कल तक देव जहाँ रमते थे

    शब्दों के बस लठ्ठ दगे

    एक विभाजन की रेखा ने

    पक्के घर को तोड़ दिया।।
    सही कहा संशय के चलते शब्द भी लट्ठ ही बन जाते हैं...फिर तो विनाश ही विनाश...
    सुन्दर संदेशप्रद लाजवाब नवगीत।

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  12. भावों को समर्थन देती प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई सुधा जी आपकी प्रतिक्रिया सदा मेरा उत्साह वर्धन करती है, और लेखनी उर्जावान होती है।
    सस्नेह।

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  13. जी बहुत बहुत आभार आपका पांच लिंक पर रचना को शामिल करने के लिए।
    मैं यथा प्रयास उपस्थिति दूंगी।
    सादर सस्नेह।

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  14. बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी, चर्चा में शामिल होना सदा सुखद अनुभव है।
    मैं उपस्थित रहूंगी।
    सादर सस्नेह।

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