संशय से निकलो
नीड़ टूट कर बिखरा ऐसा
जीवन का रुख मोड़ दिया
भग्न हृदय के तारों ने फिर
तान बजाना छोड़ दिया।
संशय जब-जब बने धारणा
गहरी नींव हिला देता
अच्छे विद्व जनों की देखी
बुद्धि सुमति भी हर लेता
बात समय रहते न संभली
शंका ने झकझोड़ दिया।।
आदर्शों के पात झड़े तब
मतभेदों के झाड़ उगे
कल तक देव जहाँ रमते थे
शब्दों के बस लठ्ठ दगे
एक विभाजन की रेखा ने
पक्के घर को तोड़ दिया।।
गिरकर जो संभलना जाने
हिम्मत की पहचान यही
नये सूत्र में सभी पिरो दें
हार मानते कभी नही
अपने नेह कोश से देखो
तिनका-तिनका जोड़ दिया।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
वाह!लाज़वाब सृजन।
ReplyDeleteकभी कभी शब्द नहीं बनते की लिखूँ क्या।
बहुत बहुत ही सुंदर।
सादर
आपका स्नेह मेरा संबल है प्रिय अनिता और फिर लाजवाब शब्द खुद ही सब कुछ कह देता है।
Deleteसस्नेह आभार आपका।
आदर्शों के पात झड़े तब
ReplyDeleteमतभेदों के झाड़ उगे
कल तक देव जहाँ रमते थे
शब्दों के बस लठ्ठ दगे
एक विभाजन की रेखा ने
पक्के घर को तोड़ दिया।।
यथार्थ का सटीक चित्रण करती उत्कृष्ट रचना । बहुत-बहुत शुभकामनाएं ।
आपकी विस्तृत विहंगम दृष्टि से रचना सार्थक हुई जिज्ञासा जी।
Deleteहृदय तल से आभार।
सस्नेह।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आलोक जी, उत्साहवर्धन हुआ।
Deleteसादर।
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteसादर।
बहुत सुंदर सखि
ReplyDeleteबहुत खूब कहा कुसुम जी, संशय जब-जब बने धारणा
ReplyDeleteगहरी नींव हिला देता
अच्छे विद्व जनों की देखी
बुद्धि सुमति भी हर लेता....जीते जी मारने के लिए बड़ा अचूक मनोवैज्ञानिक हथियार है शंका।
बहुत बहुत आभार आपका अलकनंदा जी ,आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteढेर सारा स्नेह।
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका ज्योति बहन।
Deleteसस्नेह।
बहुत ही उम्दा सृजन
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका उत्साहवर्धन हुआ आपकी उपस्थिति से।
Deleteसादर।
बहुत सुन्दर सृजन है ...
ReplyDeleteउंदर अभिव्यक्ति है ...
बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय नासवा जी आपकी प्रतिक्रिया सदा रचना को गतिमान करती है ।
Deleteसादर।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका जेन्नी जी ब्लॉग पर आपको देख मन प्रफुल्लित हुआ सदा स्नेह बनाए रखें।
Deleteसस्नेह।
आदर्शों के पात झड़े तब
ReplyDeleteमतभेदों के झाड़ उगे
कल तक देव जहाँ रमते थे
शब्दों के बस लठ्ठ दगे
एक विभाजन की रेखा ने
पक्के घर को तोड़ दिया।।
सही कहा संशय के चलते शब्द भी लट्ठ ही बन जाते हैं...फिर तो विनाश ही विनाश...
सुन्दर संदेशप्रद लाजवाब नवगीत।
भावों को समर्थन देती प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई सुधा जी आपकी प्रतिक्रिया सदा मेरा उत्साह वर्धन करती है, और लेखनी उर्जावान होती है।
ReplyDeleteसस्नेह।
जी बहुत बहुत आभार आपका पांच लिंक पर रचना को शामिल करने के लिए।
ReplyDeleteमैं यथा प्रयास उपस्थिति दूंगी।
सादर सस्नेह।
बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी, चर्चा में शामिल होना सदा सुखद अनुभव है।
ReplyDeleteमैं उपस्थित रहूंगी।
सादर सस्नेह।