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Thursday, 23 December 2021

द्रोपदी का अपमान


 द्रौपदी का अपमान


मूक अधर काया कंपित पर

भेद विदित का डोल रहा था।

काल खड़ा था चुप चुप लेकिन

उग्र विलोचन तोल रहा था।


सभा नहीं थी वो वीरों की

चारों और शिखण्डी बैठे

तीर धनुष सब झुके पड़े थे

कई विदूषक भंडी बैठे

लाल आँख निर्लज्ज दुशासन

भीग स्वेद से खौल रहा था।।


आज द्रोपदी खंड बनी सी

खड़ी सभा के बीच निशब्दा

नयन सभी के झुके झुके थे

डरे डरे थे सोच आपदा

नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल

नेह हृदय कुछ बोल रहा था।।


ढेर चीर का पर्वत जैसा

लाज संभाले हरि जयंता

द्रुपद सुता के हृदय दहकती

पावक भीषण घोर अनंता

कृष्ण सखा गहरी थी निष्ठा

तेज दर्प सा घोल रहा था।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

16 comments:

  1. बेहद हृदयस्पर्शी सृजन।

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    1. स्नेह आभार आपका सखी।
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
      सस्नेह।

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  2. बहुत बहुत सुन्दर रचना

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    1. बहुत बहुत आभार आपका उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।।
      सादर।

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२५-१२ -२०२१) को
    'रिश्तों के बन्धन'(चर्चा अंक -४२८९)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. जी सादर आभार चर्चा मंच पर रचना का आनंद का विषय है।
      मैं यथा संभव उपस्थिति दूंगी।
      सादर सस्नेह।

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  4. वाह!!!
    दुर्योधन दुःशासन की सभा बीच द्रोपदी
    अद्भुत शब्दचित्रण लाजवाब नवगीत
    🙏🙏🙏🙏

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    1. बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
      सस्नेह

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  5. मर्म को छूते भाव ...
    अलग अंदाज़ की रचना ...

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    1. जी हृदय से आभार,आपकी सक्रिय प्रतिक्रिया सेउत्साहवर्धन हुआ।
      सादर।

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  6. बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति

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    1. बहुत बहुत आभार आपका मनीषा जी।
      सस्नेह।

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  7. हृदय को छूने वाले मर्मस्पर्शी भावों सजी अनुपम कृति । अत्यन्त सुन्दर नवगीत कुसुम जी !

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    1. रचना को सम्मानित करते स्नेहिल शब्द मीना जी मैं अभिभूत हूं।
      सदा स्नेह बनाए रखें।
      सस्नेह आभार।

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  8. मूक अधर काया कंपित पर

    भेद विदित का डोल रहा था।

    काल खड़ा था चुप चुप लेकिन

    उग्र विलोचन तोल रहा था।...अद्भुत और अन्तर्मन को छूती सुंदर रचना ।

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    1. आपकी मोहक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई जिज्ञासा जी।
      हृदय से आभार आपका।
      सस्नेह।

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