मरुधरा री बलती(लू)
आंख्या भरती बालूड़ी स्यूँ
आसराम भट्टी तपता।
खदबद करता दिवस रैण ज्यूँ
बड़ चुला में छाना खपता।
नैण तरसग्या ऊपरे तकता
काली कलायण दूर न दीसे
आग उगालतो सूर बिरानों
लागे जमड़ो दांती पीसे
अरे राम जी किरपा कर तू
मास गुजरियो माला जपता।।
खड-खड़ बाजे खिड़क किवाँड़्याँ
पोळां तरसे मिनखा ने
भटक रह्या है पांख डांगरा
ठाँव -छाँव अरु तिनका ने
घिरे न बदली एक पहर भी
मास बितग्यो आँख्याँ टपता।।
हरियाली रा रूँख न दीसे
सूख खेजड़्या खोखा झड़ता
कुण बुहारे निंबोल्याँ ने
लू लपट रा कोड़ा पड़ता
कईंयाँ डालैं धान खेत में
पानी बिकतो सरवा नपता।।
नेह देह सब झुलस रया है
बूढ़ी पीपली पात परोसें
खाली ठिकर ठन-ठन बोले
हिय पानी री बूंदा ने तरसे।
ताल कुंड तली तक खाली
पगथल्याँ री छाप छपता।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'
बालूड़ी/रेत, आसराम/कमरे , बड़ /बड़े,
छाना/उपला, खपता/ खपजाना, काली कलायण/काले घने बादल, सूर /सूरज, बिरानों/पराया, जमड़ो/ यम, दांती /दांत बत्तीसी, किंवाड़्याँ/ किवाड़, खिड़क/बाहर का दरवाजा, मिनख/आदमी या मनुष्य, पोळां/ हवेली महल के बड़े बड़े द्वार, पांख/पक्षी, डांगरा/पशु, टपता /बिना पलक झुकाए, रूंख /पेड़, खोखा/ परिपक्व सांगरी, सरवा/ घड़े पर रखने वाला लोटा, पात /पत्ते ,ठिकर-बर्तन पगथल्याँ=पगथली।