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Thursday, 30 November 2023

सूरज के बदलते रूप


 सूरज के बदलते रूप (सवैया छंद)


यामा जब आँचल नील धरे, सविता जलधाम समाकर सोता।

आँखे फिर खोल विहान हुई, हर मौसम रूप पृथक्कृत होता।

गर्मी तपता दृग खोल बड़े, पर ठंड लगे तन दे सब न्योता। 

वर्षा ऋतु में नभ मेघ घने, तब देह जली अपनी फिर धोता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 16 November 2023

कुछ जो शाश्वत है

कुछ जो शाश्वत है 

खार ही खार हो अनंत सागर के अपरिमित अंबू में।
मोती हृदय में धारण करके शीपियाँ तो मुस्कुराएँगी।

तुषार पिघले कितना भी धीरे मौनी साधक सा चाहे।
अचल की कंकरियाँ तो सोत संग सुरीले गीत गाएँगी।

चाहे साँझ सुरमई सी चादर बिछा दे विश्व आँगन पर।
तम की यही राहें उषा के सिंदूरी आँचल तक जाएँगी।

भग्न हृदय की भग्न भीती पर उग आई जो कोंपलें।
जूनी खुशियों के चिर परिचित गीत तो गुनगुनाएँगी।

नाव टूटी ही सही किनारे बंधी हो चाहे निष्प्राण सी।
फिर भी सरि की चंचल लहरें तो आकर टकराएँगी।

दीप है तेल और बाती भी पर प्रकाश नहीं दिखता।
जलती अंगारी ढूंढ लो जो बातियों में जीवन लाएँगी।

स्वरचित
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
 

Wednesday, 8 November 2023

दुर्दिन

दुर्दिन


काले बादल निशि दिन छाये

चाबुक बरसाता काल खड़ा।

सूखी बगिया तृण तृण बिखरी

आशाओं का फूल झड़ा।।


चूल्हा सिसका कितनी रातें

उदर जले दावानल धूरा

राख ठँडी हो कंबल माँगे

सूखी लकड़ी तन तम्बूरा

अंबक चिर निद्रा को ढूंढ़े

धूसर वसना कंकाल जड़ा।।


पोषण पर दुर्भिक्ष घिरा है

खंखर काया खुडखुड़ ड़ोले

बंद होती एकतारा श्वांसे 

भूखी दितिजा मुंँह है खोले

निर्धन से आँसू चीत्कारे

फिर देखा हर्ष अकाल पड़ा।।


आर्द्र विहिन सूखा तन पिंजर

घोर निराशा आँखे खाली

लाचारी की बगिया लहके

भग्न भाग्य की फूटी थाली

अहो विधाता कैसा खेला

पके बिना ही फल शाख सड़ा।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'