दुर्दिन
काले बादल निशि दिन छाये
चाबुक बरसाता काल खड़ा।
सूखी बगिया तृण तृण बिखरी
आशाओं का फूल झड़ा।।
चूल्हा सिसका कितनी रातें
उदर जले दावानल धूरा
राख ठँडी हो कंबल माँगे
सूखी लकड़ी तन तम्बूरा
अंबक चिर निद्रा को ढूंढ़े
धूसर वसना कंकाल जड़ा।।
पोषण पर दुर्भिक्ष घिरा है
खंखर काया खुडखुड़ ड़ोले
बंद होती एकतारा श्वांसे
भूखी दितिजा मुंँह है खोले
निर्धन से आँसू चीत्कारे
फिर देखा हर्ष अकाल पड़ा।।
आर्द्र विहिन सूखा तन पिंजर
घोर निराशा आँखे खाली
लाचारी की बगिया लहके
भग्न भाग्य की फूटी थाली
अहो विधाता कैसा खेला
पके बिना ही फल शाख सड़ा।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 9 नवंबर 2023 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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जी सादर आभार आपका रचना को पांच लिंकों में शामिल करने हेतु।
Deleteमार्मिक कविता।
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका सृजन सार्थक हुआ।
Deleteवाह
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका सृजन को सार्थकता मिली आपकी बहुमूल्य टिप्पणी से।
Deleteवाह! बहुत सुंदर, दिल को छूने वाली!
ReplyDeleteअद्भुत शब्द चयन...सुन्दर भाव...सुन्दर रचना...👏👏👏
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका आदरणीय उत्साह वर्धन से लेखनी ऊर्जावान हुई।
ReplyDeleteसादर।