लालसा
है छलावा हर दिशा में
धुंध के बादल उमड़ते
दिन सजाता कामनाएं
वस्त्र बहु रंगीन पहने
श्याम ढ़लते लाद देते
रत्न माणिक हीर गहने
स्वप्न नित बनकर पखेरू
बादलों के पार उड़ते।
बाँध कर के पाँख मोती
मन अधीरा फिर भटकता
नापता है विश्व सारा
मोह जाले में अटकता
भूलता फिर सब विवेकी
ज्ञान के तम्बू उखड़ते।।
लालसा का दास मानव
नाम की बस चाह होती
अर्थ के संयोग से फिर
भावना की डोर खोती
द्वेष की फिर आँधियों में
मूल्य के उपवन उजड़ते।।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'