जीवन संतुलन
चलो भूल जाओ अब सब कुछ
गाँठ खोल दो मन की
डर लगता क्यों देख रहे हो
तीर दृष्टि चितवन की।।
परायापन दुश्वार लगता
अलगाव भाव प्रतीति
अन्जाने हो जाती गलती
जग की है यही रीति
आज छोड़ कर मतभेदों को
बात करें अर्जन की।।
जीवन की बीहड़ राहों पर
हाथ थाम कर चलना
अपनी राह कभी जो बदलो
सूरज जैसे ढलना
नयी प्रभाती लेकर आना
रंगत चंपक वन की।।
मानव मन दुर्बल है जानों
कच्ची माटी फिसलन
ढ़ोर हांकते चरवाहे सी
ढुलमुल डांडी डगमग
सदा प्रीत को मन संजोना
गुणवत्ता जावन की।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-10-2020 ) को "उस देवी की पूजा करें हम"(चर्चा अंक-3860) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार।
Deleteमैं तथा प्रयास उपस्थित रहूंगी।
सस्नेह।
बहुत सुंदर रचना सखी 👌
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका सखी।
Deleteबहुत ही सुंदर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteउत्साह वर्धन हुआ
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 21 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteमैं मुखरित मौन पर अवश्य उपस्थित रहूंगी।
सादर
उत्साह वर्धन का आत्मीय आभार
ReplyDeleteबहुत बढ़िया।।
ReplyDeleteजीवन की बीहड़ राहों पर
ReplyDeleteहाथ थाम कर चलना
अपनी राह कभी जो बदलो
सूरज जैसे ढलना
सुन्दर संदेश देता लाजवाब सृजन
वाह!!!