रव में नीरव
नाव गर बँधी हो तो भी
नदिया का बहना
नाव तले रहता है
जाना हो गर पार तो
डालनी होती है
कश्ती मझधार में
साहिलों पर रहने वालों को
किनारों का कोई
आगाज नही होता
लड़ते भंवर से वो ही जाने
किनारे क्या होते हैं
जो ढूंढ़ते एकांत
स्वयं को खोजने
भटकते हैं बियावान में
कुछ नही पाते
स्वयं की तलाश में
उतरते निज के जो अंदर
वो रव में भी नीरव पा जाते ।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सुन्दर
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय आपका।
Deleteवाह!कुसुम जी ,बहुत खूब!
ReplyDeleteबहुत बहुत सा स्नेह आभार ब्लाग पर आपकी उपस्थिति सदा खुशी से भर देती है।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०३-१०-२०२०) को ''गाँधी-जयंती' चर्चा - ३८३९ पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
बहुत बहुत आभार आपका चर्चा मंच पर उपस्थित रहूंगी,ये मेरे लिए सदा हर्ष का विषय है।
Deleteस्वयं की तलाश में
ReplyDeleteउतरते निज के जो अंदर
वो रव में भी नीरव पा जाते
बहुत सुन्दर संदेश !! बहुत खूब !!अप्रतिम सृजन ।
बहुत बहुत आभार मीना जी आपका स्नेह मेरे लेखन में उर्जा भर देता है।
Deleteसस्नेह।
नाव-नदी-किनारे-माझी-मझधार-धार... पूरा का पूरा दृश्य एक रचना में समाहित हो गया... अत्यंत सरल पर अत्यंत भावपूर्ण भाषा शैली में... रचना की सफलता हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें...!!!
ReplyDeleteसादर नमन आदरणीय अभिनव प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसादर।
बहुत सुंदर रचना सखी।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी।
Deleteउत्साहवर्धन हुआ।
सस्नेह।
बहुत बहुत सा आभार दिव्यता जी मैं मुखरित मौन पर अवश्य उपस्थित रहूंगी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना कुसुम जी... बधाई!
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।
सादर।