अवगुंठन में बालाएं
कोख कैद से बच आई ,
अवगुंठन लाचारी
कितना अभी सफर लम्बा,
लिए वेदना भारी ।।
नैन में मोती समेटे
ऊपर से दृढ दिखती
रात दिवस अन्यचित्तता
भाग्य लेखनी लिखती
कितने युगों तक करेगी
फटे हुए को कारी।।
उड़े नापले नीला नभ
कितनी आशा पाली
बंद आँखे सपनों भरी
खूली तिक्ता खाली
मन से गढ़ती काष्ठ महल
स्वयं चलाती आरी।।
भय समेटेअस्मिता का
सहित वर्जना जीती
भरती है जग आँगन को
रह जाती है रीती
पत्ते ऊपर झरी ओस
खाली होती झारी।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सुन्दर
ReplyDeleteहे नारी ! तू तो राजपूतों की तरह आपस में ही लड़ते-लड़ते अपना साम्राज्य पुरुष रूपी तुर्क को सौंप बैठी.
ReplyDeleteअब तो संगठित होकर अपने दुश्मनों का सामना कर !
भय समेटेअस्मिता का
ReplyDeleteसहित वर्जना जीती
भरती है जग आँगन को
रह जाती है रीती
पत्ते ऊपर झरी ओस
खाली होती झारी।।
- अद्भुत लेखन....नारी के उपर होते अत्याचार और अन्दर व्याप्त भय का अलंकृत वर्णन बहुत ही सुंदर तरीके से उभारा है आपने।
साधुवाद ...
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 12 अक्टूबर 2020) को 'नफ़रतों की दीवार गहरी हुई' (चर्चा अंक 3852 ) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteप्रतीको के माध्यम से सुन्दर और सामयिक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
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