पनिहारी
चल सखी ले घट पनघट चलें
राह कठिन बातों में निकले
अपने मन की कह दूं कुछ तो
कुछ सुनलूं तुम्हारे हृदय की
साजन जब से परदेश गये
परछाई सी रहती भय की
कुछ न सुहाता है उन के बिन
विरह प्रेम की बस हूक जले।।
अब कुछ भी रस नहीं लुभाते
बिन कंत पकवान भी फीके
कजरा गजरा मन से उतरे
न श्रृंगार लगे मुझे नीके
रैन दिवस नैना ये बरसते
श्याम हुवे कपोल भी उजले।।
कहो सखी अब अपनी कह दो
अपने व्याकुल मन की बोलो
क्या मेरी सुन दृग हैं छलके
अंतर रहस्य तुम भी खोलो
खाई चोट हृदय पर गहरी
या फिर कोई विष वाण चले।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बहुत अच्छा 🌻
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 10 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति,कुसुम दी।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (11-10-2020) को "बिन आँखों के जग सूना है" (चर्चा अंक-3851) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाहः
ReplyDeleteसुन्दर रचना
सुन्दर कल्पना.
ReplyDeleteबहुत खूब...क्या बात लिखी है आपने कुसुम जी कि ...विरह प्रेम की बस हूक जले...इसके बाद और कुछ की जगह ही नहीं रहती...
ReplyDeleteघर से पनघट, पनघट से घर ! भले ही यात्रा कष्टकर हो ! ये कुछ उन्मुक्त पल कुछ तो तनावमुक्त करते ही होंगे, कन्याओं-युवतियों को
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