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Friday, 9 October 2020

पनिहारी

 पनिहारी


चल सखी ले घट पनघट चलें 

राह कठिन बातों में निकले


अपने मन की कह दूं कुछ तो

कुछ सुनलूं तुम्हारे हृदय की

साजन जब से परदेश गये

परछाई सी रहती भय की

कुछ न सुहाता है उन के बिन

विरह प्रेम  की बस हूक जले।।


अब कुछ भी रस नहीं लुभाते

बिन कंत पकवान भी फीके

कजरा गजरा मन से उतरे

न श्रृंगार लगे मुझे नीके

 रैन दिवस नैना ये बरसते

श्याम हुवे कपोल भी उजले।।


कहो सखी अब अपनी कह दो

अपने व्याकुल मन की बोलो

क्या मेरी सुन दृग हैं छलके

अंतर रहस्य तुम भी खोलो

खाई चोट हृदय पर गहरी

या फिर कोई विष वाण चले।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


8 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 10 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति,कुसुम दी।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (11-10-2020) को     "बिन आँखों के जग सूना है"   (चर्चा अंक-3851)     पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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  4. बहुत खूब...क्या बात ल‍िखी है आपने कुसुम जी क‍ि ...विरह प्रेम की बस हूक जले...इसके बाद और कुछ की जगह ही नहीं रहती...

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  5. घर से पनघट, पनघट से घर ! भले ही यात्रा कष्टकर हो ! ये कुछ उन्मुक्त पल कुछ तो तनावमुक्त करते ही होंगे, कन्याओं-युवतियों को

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