धरा फिर मुस्कुराई
सिंधु से आँसू उठाकर
बादलों ने घर दिए
ताप से जलती धरा पर
लेप शीतल कर दिए।
नेह सिंचित भूमि सरसी
पोर मुखरित खिल गया
ज्यों वियोगी काव्य को
छंद कोई मिल गया
गूंथ अलके श्यामली सी
फूल सुंदर धर दिए।।
ठूंठ होते पादपों पर
कोंपले खिलने लगी
प्राण में नव वायु दौड़ी
आस फिर फलने लगी
ज्योति हर कण में प्रकाशित
भोर ने ये वर दिए।।
शाख पर खिलते मुकुल पर
तितलियों ने गीत गाये
भूरि राँगा यूँ बिखरकर
पर्व होली का मनाये
ये कलाकृति पूछती है
रंग किसने भर दिए।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'