रस धरती के सूख रहे ।
मलीन चीर की संकुचन
रस धरणी के खूट रहे ।
निज सुत हाथों दोहन हा,
किस विधि देखो लूट रहे ।।
तन सूखा तन्वंगी नदियां ,
अश्रु गाल पर सूख गये ।
तृषित पखेरू नभ पर उड़ते ,
रेत ओढ़नी रूंख गये।
दरक दरक कर ये तन टूटा,
और भाग ही फूट रहे।।
हरित चुनरिया धूसर है अब ,
कंक्रीटों के वन भारी ।
जंगल मरघट से दावानल,
विपदा आएगी भारी ।
प्रसू अम्बिका माँ को अपनी ,
अपने हाथों चूट रहे ।।
अगन बरसती आसमान से ,
निसर्ग जाने क्या चाहे।
मनुज क्रूर कितना निर्मोही,
सिर्फ निज आनंद चाहे।
हर दिन आती विपदा भारी,
संबल सारे टूट रहे।।
कुसुम कोठारी।