Tuesday, 31 March 2020

रस धरा के सूख रहे


रस धरती के सूख रहे ।

मलीन चीर की संकुचन
रस धरणी के खूट रहे ।
निज सुत हाथों दोहन हा,
किस विधि देखो लूट रहे ।।

तन सूखा तन्वंगी नदियां ,
अश्रु गाल पर सूख गये ।
तृषित पखेरू नभ पर उड़ते ,
रेत ओढ़नी रूंख गये।
दरक दरक कर ये तन टूटा,
और भाग ही फूट रहे।।

हरित चुनरिया धूसर है अब ,
कंक्रीटों के वन भारी ।
जंगल मरघट से दावानल,
विपदा आएगी भारी ।
प्रसू अम्बिका माँ को अपनी ,
अपने हाथों चूट रहे ।।

अगन बरसती आसमान से ,
निसर्ग जाने क्या चाहे।
मनुज क्रूर कितना निर्मोही,
सिर्फ निज आनंद चाहे।
हर दिन आती विपदा भारी,
संबल सारे टूट रहे।।

कुसुम कोठारी।

Sunday, 29 March 2020

भेद विदित का

भेद विदित का

झर झर बरसे मोती अविरल
नेत्र दृश्य कुछ तोल रहा था।
मूक अधर शरीर कंपित पर
भेद विदित का डोल रहा था।

आज द्रोपदी खंड बनी सी,
खड़ी सभा के बीच निशब्दा।
नयन सभी के झुके झुके थे,
डरे डरे थे सोच आपदा।
लाल आँख निर्लज्ज दुशासन
भीग स्वेद से खौल रहा था
मूक अधर शरीर कंपित पर
भेद विदित का डोल रहा था।

 ढेर चीर का पर्वत जैसा,
लाज संभाले हरि जयंता।
द्रुपद सुता के हृदय दहकती,
अनल अबूझ अनंत अनंता।
सखा कृष्ण अगाध थी निष्ठा,
तेज दर्प सा घोल रहा था।
मूक अधर शरीर कंपित पर
भेद विदित का डोल रहा था।

कुसुम कोठारी।

Thursday, 26 March 2020

क्लांत पथिक

क्लांत पथिक

क्लांत हो कर पथिक बैठा
नाव खड़ी मझधारे ।
लहर चंचल आस घायल
किस विध पार उतारे।

अर्क नील कुँड से निकला
पंख विहग नभ खोले
मीन विचलित जोगिणी सी
तृषित सिंधु में डोले।
क्या उस घर लेकर जाए
भ्रमित घुमी घट खारे।
क्लांत हो कर पथिक बैठा
नाव खड़ी मझधारे।।

डाँग डगमग चाल मंथर
घटा मेघ मंडित है।
हृदय बीन जरजर टूटी
साज सभी खंडित है ।
श्रृंग दुर्गम राह रोके
साथ न कोई सहारे।
क्लांत हो कर पथिक बैठा
नाव खड़ी मझधारे।।

खंडित बीणा स्वर टूटा
राग सरस कब गाया
भांड मृदा भरभर काया
ठेस लगे बिखराया ।
मूक हो गया मन सागर
शब्द लुप्त है सारे।
क्लांत हो कर पथिक बैठा
नाव खड़ी मझधारे।।

कुसुम कोठारी।

Wednesday, 25 March 2020

श्वास रहित है तन पिंजर

गीत।
श्वास रहित है तन पिंजर

तड़प मीन की मन मेरे
श्याम नही अंतर जाने
गोकुल छोड़़ जावन कहे
बात नेह की कब माने।

अमर लतिका स्नेह लिपटी
छिटक दूर क्यों कर जाए।
बिना मूल मैं तरु पसरी
जान कहां फिर बच पाए।

श्वास रहित है तन पिंजर
साथ सखी देती ताने।
तड़प मीन की मन मेरे
श्याम नही अंतर जाने ।।

बिना चाँद चातक तरसे
रात रात जगता रहता
टूट टूट मन इक तारा
सिसक सिसक आहें भरता।

कौन सुने खर जग सारा।
बात बात देता ताने।
तड़प मीन की मन मेरे
श्याम नही अंतर जाने ।।

कुसुम कोठारी।

Sunday, 22 March 2020

कुछ याद उन्हें भी करलें

कुछ याद उन्हें भी करलें

मातृभूमि की बलिवेदी पर,
शीश लिये, हाथ जो चलते थे।
हाथों में अंगारे ले कर,
ज्वाला में जो जलते थे ।
अग्नि ही पथ था जिनका ,
अलख जगाये चलते थे।
जंजीरों में जकड़ी मां को,
आजाद कराना सपना था ।
शिकार खोजते रहते थे ,
जब सारी दुनिया सोती थी ।
जिनकी हर सुबहो ,
भाल तिलक रक्त से होती थी ।
आजादी का शंख नाद जो ,
बिना शंख ही करते थे ।
जब तक मां का आंचल ,
कांटो से मुक्त ना कर देगें।
तब तक चैन नही लेंगे,
सौ सौ बार शीश कटा लेंगे।
दन-दन बंदूकों के आगे ,
सीना ताने चलते थे ।
जुनून मां की आजादी का,
सर बाँध कफ़न जो चलते थे।
न घर की चिंता न मात -पिता,
न भाई  बहन न पत्नी की।
कोई रिश्ता न बांध सका,
जिनकी मौत प्रेयसी थी ।
ऐसे देशभक्तों पर हर एक,
देशवासी को है अभिमान।
नमन करें उनको जो ,
आजादी की नीव का पत्थर थे।
एक विशाल भवन के
निर्माण हेतु हुए बलिदान।
नमन उन्हें हम करते हैं,
नमन उन्हें सब करते हैं ।।
                    कुसुम कोठारी ।

Saturday, 21 March 2020

कांची काया मन अथीरा

नव गीत ।
काची काया मन अथिरा


काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हीड़े जग सारा ।
दिखे सिर्फ थावर ये माया,
थिर थिर डोले है जग सारा ।

रोक हींड़ोला मध्य झांका ,
अंदर ज्यादा ही कंपन था ।
बाहर गति मंथर हो चाहे,
मानस अस्थिर भूड़ोलन था ।

 गुप्त छुपी विधना की मनसा,
जान न पाये ये जग सारा ।
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।

जलावर्त  में मकर फसी है,
चक्रवात में नभचर पाखी
मानव दोनों बीच घिरा है ,
जब तक जल न भये वो लाखी।

कहां देश को गमन सभी का ,
जान न पाये ये जग सारा ।
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।

कुसुम कोठारी।

सांसों की लय

सीप की वेदना "सांसों की लय"

हृदय में लिये बैठी थी
एक आस का मोती,
सींचा अपने वजूद से,
दिन रात हिफाजत की
सागर की गहराईयों में,
जहाँ की नजरों से दूर,
हल्के-हल्के लहरों के
हिण्डोले में झूलाती,
"सांसो की लय पर"
मधुरम लोरी सुनाती,
पोषती रही सीप
अपने हृदी को प्यार से,
मोती धीरे-धीरे
शैशव से निकल
किशोर होता गया,
सीप से अमृत पान
करता रहा तृप्त भाव से,
अब यौवन मुखरित था
सौन्दर्य चरम पर था,
आभा ऐसी की जैसे
दूध में चंदन दिया घोल,
एक दिन सीप
एक खोजी के हाथ में
कुनमुना रही थी,
अपने और अपने अंदर के
अपूर्व को बचाने,
पर हार गई उसे
छेदन भेदन की पीडा मिली,
साथ छूटा प्रिय हृदी का ,
मोती खुश था बहुत खुश
जैसे कैद से आजाद,
जाने किस उच्चतम
शीर्ष की शोभा बनेगा,
उस के रूप पर
लोग होंगे मोहित,
प्रशंसा मिलेगी,
हर देखने वाले से ।
उधर सीपी बिखरी पड़ी थी
दो टुकड़ों में
कराहती सी रेत पर असंज्ञ सी,
अपना सब लुटा कर,
वेदना और भी बढ़ गई
जब जाते-जाते
मोती ने एक बार भी
उसको देखा तक नही,
बस अपने अभिमान में
फूला चला गया,
सीप रो भी नही पाई,
मोती के कारण जान गमाई,
कभी इसी मोती के कारण
दूसरी सीपियों से
खुद को श्रेष्ठ मान लिया,
हाय क्यों मैंने
स्वाति का पान किया।।

         कुसुम कोठारी।

Thursday, 19 March 2020

नागफनी

नागफनी

कहो तो नागफनी
मरुस्थल के सीने पर कैसे?

कुदरत को धत्ता बताती,
खिलखिलाती रहती ऐसे।
सूखे गात वाली माँ के ,
आँचल में पल कर जैसे।
कोई बिरावन परवान चढ़ता
अपने ही बल पर ऐसे।।

कहो तो नागफनी
मरुस्थल के सीने पर कैसे?

भूरी भूमि पर लिए हरितिमा,
हृदय ताल में पुष्प खिले।
बाहर कांटे दिखने को ,
अंतर कितनी नमी मिले।
प्यास अपने अंदर सोखे
नीर समेटे बादल जैसे।।

कहो तो नागफनी
मरुस्थल के सीने पर कैसे?

धूप ताप अंधड़ सहती हो
फिर भी सदा हँसती रहती हो
मौसम बदले रूप कई
तुम अमर कथा सी बहती हो
औषध गुण से भरी भरी
अपना अस्तित्व संभाला ऐसे।।

कहो तो नागफनी
मरुस्थल के सीने पर कैसे?

        कुसुम कोठारी।

Tuesday, 17 March 2020

काग और हंस

काग और हंस

मुक्ता छोड़ अब हंस
चुनते फिरते दाना।
रंग शुभ्रा आड़ में
रहे काग यश पाना।

अपनी डफ़ली बजा बजा
सरगम सुनाते बेसुरी
बन देवता वो बोलते
कथन सब होते आसुरी।
मातम मनाते सियारी
हू हू कर झुठ का गाना।
रंग शुभ्रा आड़ में
रहे काग यश पाना।

चमक दमक सब बाहर की
कपड़े उजले, मन काला
तिलक भाल पर संदल का
कर थामे झुठ की माला
मनका फेरत जुग बीता
न फिरा बैर का ताना
रंग शुभ्रा आड़ में
रहे काग यश पाना।।

बिन पेंदी के लोटे जी
गंगा गये  गंगा राम
हां में हां करता रहता
जमुना गया जमुना राम
नाम बदल लो क्या जाता
डाल कबूतर को दाना
रंग शुभ्रा आड़ में
रहे काग यश पाना।

कुसुम कोठारी।

Thursday, 12 March 2020

पलकों के पलने

बुला रही थी सपने आ तू
पलकों के पलने खाली है।
तंद्रा जाल घिरा था मन पर
लगा नींद आने वाली है।।

अंधकार ने फेंका पासा
जैसे आभा पर परदा है
अंतर में थी घोर निराशा
हृदय आलोक भी मंदा है
ऐसे मेघ घिरे थे काले
खंडित वृक्ष की डाली है।
तंद्रा जाल घिरा था मन पर
लगा नींद आने वाली है।।

काँच के जैसे बिखरे सपने
किरचिंया चुभती है तीखी
करवट बदली हर पहलू में
पीड़ा चुभती एक सरीखी
महत्वकांक्षा के घोड़े पर
उजड़े उपवन का माली है।
तंद्रा जाल घिरा था मन पर
लगा नींद आने वाली है।।

सहसा एक उजाला अंदर
सारे ताले ही तोड़ गया
चलो उठो का रव ये गूंजा
विश्वास झरोखे खोल गया
जागो समझो तभी सवेरा
अँधकार भगाने वाली है।
तंद्रा जाल घिरा था मन पर
लगा नींद आने वाली है।।

कुसुम कोठारी।

Tuesday, 10 March 2020

मन की गति कोई न जाने

मन की गति कोई न समझे

भावना के गहरे भँवर में
डूबे उभरे पल क्षण पल क्षण।
मन की गति कोई ना समझे
डोला घूमा हर कण हर कण।


कभी अर्श चढ़ कभी फर्श पर
उड़ता फिरता मारा मारा ।
मीश्री सा मधुर और मीठा
कभी सिंधु सा खारा खारा।
कोई इसको समझ न पाया
समझा कोई हर कण हर कण।।

भावना के गहरे भँवर में
डूबे उभरे पल क्षण पल क्षण।।

कभी दूर तक नाता जोड़े
नज़र अंदाज अपनें होते
गुमसुम किसी गुफा में घूमे
बागों में हरियाली जोते
कैसे कैसे स्वाग रचाए
इसकी आभा हर कण हर कण।

भावना के गहरे भँवर में
डूबे उभरे पल क्षण पल क्षण।।

कुसुम कोठारी।

Sunday, 8 March 2020

तू कैसो रंगरेज

तू कैसो रंगरेज

ना खेरू होली तोरे संग सांवरीया
बिन खेले तोरे रंग रची मैं
कछु नाही मुझ में अब मेरो
किस विधि च्ढ्यो रंग छुडाऊं
तू कैसो रंगरेज ओ कान्हा
कौन देश को रंग मँगायो
बिन डारे मैं हुई कसुम्बी
तन मन सारो ही रंग ड़ारयो
ना खेलूं होरी तोरे संग ।

         कुसुम कोठारी ।

Saturday, 7 March 2020

सर्वार्थ हित क्रीड़ा

सर्वार्थ हित की क्रीड़ा

वैर द्वेष का कारण ढूंढो
देखो निज प्रभुता की ओर।।
भौतिकता की होड़ में अँधा
सदभावों की टूटी डोर।

मन में पाले वैमनस्यता
हाथों में ले चुभते तीर
आँखों में नाखून उगे है
समझें नही किसी की पीर
आदमियों की भीड़ बढी है
मानवता ले भागे मोर।
वैर द्वेष का कारण ढूंढो
देखो निज प्रभुता की ओर।।

खेल रहा हर कोई देखो
स्वार्थ हित साधन की क्रीड़ा
शांति दूत अब दिखना मुश्किल
झेले क्यों किसीकी पीड़ा
चैन औ अमन संग ले गये
बापू की लाठी भी चोर।
वैर द्वेष का कारण ढूंढो
देखो निज प्रभुता की ओर।।

धधक रही  है ज्वाला जैसी
जनता में है हाहाकार
लावा जैसे फूट पड़ा है
डर की आँधी पारावार
धुंधला मेघ घिरा देश पर
अधोगमन की बाजी जोर।
वैर द्वेष का कारण ढूंढो
देखो निज प्रभुता की ओर।।

कुसुम कोठारी।

Friday, 6 March 2020

ऐसा अभिसार चातकी का

तिमिरावगूंठित थी त्रियामा ,
आकाश के छोर अर्ध चंद्रमा।
अपनी निष्प्रभ आभा से उदास कहीं खोया,
नीले आकाश के विशाल प्रांगण में जा सोया।
तारों की झिलमिलाहट उसे चुभ गई ,
उसकी ये पीड़ा चातकी के हृदय में लग गई ।
चल पड़ी अभिसार को वो, पंख फैलाकर अपने,
सफर लम्बा होगा निश्चित पर पूरे होंगे सपने।
वो चाँद के पास होगी बहुत पास,
उड़ी पादप पल्लवों की छोड़ ओट, लिए आस।
निर्बाध गति,संभल कर उड़ती एक शब्द भी न हो
लांघ चुकी वो मर्यादा ,किसी को खबर न हो।
ध्येय था दूर,आशा अदम्य उड़ी वो मंथर,
कितना काल बीता अन्जान बढ़ती रही निरन्तर।
अचानक देखा प्रिय शशि ओझल हो रहा ,
प्राची विहान की मूंगिया आभा बिखेर रहा ।
नीले अवगुंठन को भेद भानु बाहर आए,
वो रुकी, भ्रमित किस दिशा को जाए ।
बस डोलती रही  व्याकुल सी ,
मार्तण्ड में तेजी बढी अनल सी।
झुलसा दिए उसने उसके पर सारे ,
वो आधार विहीन हो गई बेसहारे।
तीव्र गति से क्षिति पर गिरी निष्त्राण,
हा देह थी अब निष्प्राण !!!

कुसुम कोठारी।

Thursday, 5 March 2020

मन आँगन

मन आँगन
जब दिल की मुंडेर पर ,
अस्त होता सूरज आ बैठता है।
श्वासों में कुछ मचलता है
कुछ यादें छा जाती
सुरमई सांझ बन ,
जहाँ हल्का धुंधलका
हल्की रोशनी,
कुछ उड़ते बादल मस्ती में,
डोलते मनोभावों जैसे
हवाके झोंके,
सोया एहसास जगाते ,
होले-होले बेकरारियों को
थपकी दे सुलाते ,
मन गगन पर वो उठता चांद
रोशनी से पूरा आँगन, जगमगा देता,
मन दहलीज पर,
मोती चमकता मुस्कान का ,
फिर नये ख्वाब लेते अंगड़ाई
होले - होले,
जब दिल की.........

                      कुसुम कोठारी ।

Wednesday, 4 March 2020

गरल चहुँ ओर

गरल है चहुँ ओर।

हाथ हाथ को काट रहा है
भय निष्ठा को निगले
अमन शांति के स्वर गूंजे तब
मनुज राग से निकले।

अमरबेल बन करके लटके
               वृक्षों का रस सोखे।
जिसके दामन से लिपटी हो
                उस को ही दे धोखे।
दुनिया कैसी बदली-बदली
                 गरल हमेशा उगले।
हाथ हाथ को काट रहा है
भय निष्ठा को निगले।।

बने सहायक प्रेम भाव जो
              सीढ़ी बन पग धरते।
जिनके कारण बने आदमी
                उनकी दुर्गत करते।
स्वार्थ भाव का कारक तगड़ा
              धन के पीछे पगले।
हाथ हाथ को काट रहा है
भय निष्ठा को निगले।।

चहुं ओर अशांति का डेरा
              शांति ना आनंद है।
सम भावों में जो है रहते
                  वहीं परमानंद है।
समता भाईचारा छूटा
            धैर्य क्रोध से पिघले
हाथ हाथ को काट रहा है
भय निष्ठा को निगले।।

              कुसुम कोठारी।

Monday, 2 March 2020

उर्मि की स्वर्णिम माला

उर्मि की स्वर्णिम माला

चीर तिमिर की छाती को अब
सूरज उगने वाला है
प्राची के धुँधले प्रांगन में
उर्मि की स्वर्णिम माला है।

निशा सँभालों अब निज गठरी
गमन करो तुम अब जग से
प्रगति राह पर भोला मानव
चल पड़ा अब तीव्र डग से
सप्त गुणों को लेकर जागा
उर्मि भरा ये प्याला है।
चीर तिमिर की छाती को अब
सूरज उगने वाला है।।

बांध लिया क्यों बंधन झूठा
निर्झर जैसे बह निकलो
उतंग गिरी के सरगम बन
सरिता बनकर के छलको
काल की निर्बाध चाल संग
दौड़े हिम्मत आला है।
चीर तिमिर की छाती को अब
सूरज उगने वाला है ।।

सागर का अंतर मंथन कर
मोती तुमको पाना है
हाथ बढ़ा कर नभ को थामों
चाँद धरा पर लाना है
चाहो तो सब-कुछ तुम करलो
त्यागो गड़बड़ झाला है ।
चीर तिमिर की छाती को अब
सूरज उगने वाला है ।।

कुसुम कोठारी।

Sunday, 1 March 2020

फाग पर ताँका

फाग पर ' ताँका 'विधा की रचनाएँ ~

१. आओ री सखी
       आतुर मधुमास
       आयो फागुन
       बृज में होरी आज
       अबीर भरी फाग।

२. शाम का सूर्य
       गगन पर फाग
       बादल डोली
      लो सजे चांद तारे
      चहका मन आज।

३. उड़ी गुलाल
       बैर भूलादे मन
       खेलो रे खेलो
       सुंदर मधुरस
       मनभावन फाग ।
               कुसुम कोठारी ।

ताँका (短歌) जापानी काव्य की कई सौ साल पुरानी काव्य विधा है। इस विधा को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के दौरान काफी प्रसिद्धि मिली। उस समय इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। हाइकु का उद्भव इसी से हुआ।

इसकी संरचना ५+७+५+७+७=३१ वर्णों की होती है।