Tuesday, 31 March 2020

रस धरा के सूख रहे


रस धरती के सूख रहे ।

मलीन चीर की संकुचन
रस धरणी के खूट रहे ।
निज सुत हाथों दोहन हा,
किस विधि देखो लूट रहे ।।

तन सूखा तन्वंगी नदियां ,
अश्रु गाल पर सूख गये ।
तृषित पखेरू नभ पर उड़ते ,
रेत ओढ़नी रूंख गये।
दरक दरक कर ये तन टूटा,
और भाग ही फूट रहे।।

हरित चुनरिया धूसर है अब ,
कंक्रीटों के वन भारी ।
जंगल मरघट से दावानल,
विपदा आएगी भारी ।
प्रसू अम्बिका माँ को अपनी ,
अपने हाथों चूट रहे ।।

अगन बरसती आसमान से ,
निसर्ग जाने क्या चाहे।
मनुज क्रूर कितना निर्मोही,
सिर्फ निज आनंद चाहे।
हर दिन आती विपदा भारी,
संबल सारे टूट रहे।।

कुसुम कोठारी।

17 comments:

  1. विपदा में सब धैर्य टूटने लगते है पर इंसान का सब्र ऐसे में ही काम आता है ...
    बहुत भावपूर्ण लाजवाब रचना है ...

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    1. सादर आभार आपका उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया।

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३ अप्रैल २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका पाँच लिंक में आना सदा सुखदाई होता है ।
      सस्नेह।

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  3. वाह ! क्या बात है ! खूबसूरत प्रस्तुति आदरणीया । बहुत खूब ।

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    1. सादर आभार आपका , सार्थक प्रतिक्रिया से रचना को प्रवाह मिला।
      सादर।

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  4. दुनिया की वर्तमान स्थिति का चित्रण करती बहुत अच्छी रचना कुसुम जी।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका मीना जी।
      आपकी सक्रिय उपस्थित आनंद दायक ।
      सस्नेह ।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।

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  6. वाह!कुसुम जी ,बेहतरीन ! सच में मानव निजानंद के लिए कितना क्रूर होता जा रहा है ।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका शुभा जी।
      रचना सार्थक हुई।सस्नेह।

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  7. अगन बरसती आसमान से ,
    निसर्ग जाने क्या चाहे।
    मनुज क्रूर कितना निर्मोही,
    सिर्फ निज आनंद चाहे

    सिर्फ खुद का आनंद खुद के स्वार्थ में ही लिप्त हैं ,सुंदर सृजन कुसुम जी ,सादर नमन आपको

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    1. बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी।
      उत्साहवर्धन करती आपकी प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।

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  8. बहुत बहुत आभार आपका ।
    सादर।

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  9. समसामयिक परिस्थितियों मे अन्य जीवों का कोलाहल देख कर मानव के स्वार्थ पर मन सच में आंदोलित हो उठता है।मन के अत्यंत करीब भावपूर्ण रचना ।
    सादर ।

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  10. तन सूखा तन्वंगी नदियां ,
    अश्रु गाल पर सूख गये ।
    तृषित पखेरू नभ पर उड़ते ,
    रेत ओढ़नी रूंख गये।
    दरक दरक कर ये तन टूटा,
    और भाग ही फूट रहे।।
    बहुत सुन्दर अद्भुत ....
    समसामयिक लाजवाब सृजन
    वाह!!!

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