Wednesday, 4 March 2020

गरल चहुँ ओर

गरल है चहुँ ओर।

हाथ हाथ को काट रहा है
भय निष्ठा को निगले
अमन शांति के स्वर गूंजे तब
मनुज राग से निकले।

अमरबेल बन करके लटके
               वृक्षों का रस सोखे।
जिसके दामन से लिपटी हो
                उस को ही दे धोखे।
दुनिया कैसी बदली-बदली
                 गरल हमेशा उगले।
हाथ हाथ को काट रहा है
भय निष्ठा को निगले।।

बने सहायक प्रेम भाव जो
              सीढ़ी बन पग धरते।
जिनके कारण बने आदमी
                उनकी दुर्गत करते।
स्वार्थ भाव का कारक तगड़ा
              धन के पीछे पगले।
हाथ हाथ को काट रहा है
भय निष्ठा को निगले।।

चहुं ओर अशांति का डेरा
              शांति ना आनंद है।
सम भावों में जो है रहते
                  वहीं परमानंद है।
समता भाईचारा छूटा
            धैर्य क्रोध से पिघले
हाथ हाथ को काट रहा है
भय निष्ठा को निगले।।

              कुसुम कोठारी।

9 comments:

  1. वाह बेहतरीन नवगीत सखी 🌹

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    1. बहुत बहुत आभार सखी आपकी प्रतिक्रिया से रचना को प्रवाह मिला।
      सस्नेह।

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  2. तात्कालीन परिवेश के सार्थक चिन्तन पर दृष्टिकोण डालता बेहतरीन सृजन आदरणीया दीदी.
    सादर

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    1. यथार्थ पर सुंदर टिप्पणी से रचना का मान बढ़ाया आपने ।
      सस्नेह आभार।

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 06 - 03-2020) को "मिट्टी सी निरीह" (चर्चा अंक - 3632) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    अनीता लागुरी"अनु"

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    1. जी बहुत बहुत आभार आपका चर्चामंच पर रचना को शामिल करने केलिए तहेदिल से शुक्रिया।
      मैं उपस्थित रहूंगी ।
      सस्नेह।

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  4. Replies
    1. जी आदरणीय आत्मीय आभार आपका।
      सादर।

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  5. अमरबेल बन करके लटके
    वृक्षों का रस सोखे।
    जिसके दामन से लिपटी हो
    उस को ही दे धोखे।
    आज समाज में इन्सानियत खत्म हो रही है रिश्ते भी भरोसे के न रहे ....धोखे फरेब से भरे समाज पर कटु व्यंगभरा लाजवाब नवगीत...
    वाह!!!

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