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Saturday, 21 March 2020

कांची काया मन अथीरा

नव गीत ।
काची काया मन अथिरा


काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हीड़े जग सारा ।
दिखे सिर्फ थावर ये माया,
थिर थिर डोले है जग सारा ।

रोक हींड़ोला मध्य झांका ,
अंदर ज्यादा ही कंपन था ।
बाहर गति मंथर हो चाहे,
मानस अस्थिर भूड़ोलन था ।

 गुप्त छुपी विधना की मनसा,
जान न पाये ये जग सारा ।
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।

जलावर्त  में मकर फसी है,
चक्रवात में नभचर पाखी
मानव दोनों बीच घिरा है ,
जब तक जल न भये वो लाखी।

कहां देश को गमन सभी का ,
जान न पाये ये जग सारा ।
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।

कुसुम कोठारी।

4 comments:

  1. सुंदर रचना

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    1. बहुत बहुत आभार आपका, उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।

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  2. बहुत बहुत आभार आदरणीय चर्चा मंच के लिए रचना का चुनाव सदा प्रसन्नता का विषय है।
    मैं अवश्य उपस्थित रहूंगी।

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  3. बहुत बहुत स्नेह ज्योति बहन ।
    ढेर सा आभार।

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