नव गीत ।
काची काया मन अथिरा
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हीड़े जग सारा ।
दिखे सिर्फ थावर ये माया,
थिर थिर डोले है जग सारा ।
रोक हींड़ोला मध्य झांका ,
अंदर ज्यादा ही कंपन था ।
बाहर गति मंथर हो चाहे,
मानस अस्थिर भूड़ोलन था ।
गुप्त छुपी विधना की मनसा,
जान न पाये ये जग सारा ।
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।
जलावर्त में मकर फसी है,
चक्रवात में नभचर पाखी
मानव दोनों बीच घिरा है ,
जब तक जल न भये वो लाखी।
कहां देश को गमन सभी का ,
जान न पाये ये जग सारा ।
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।
कुसुम कोठारी।
काची काया मन अथिरा
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हीड़े जग सारा ।
दिखे सिर्फ थावर ये माया,
थिर थिर डोले है जग सारा ।
रोक हींड़ोला मध्य झांका ,
अंदर ज्यादा ही कंपन था ।
बाहर गति मंथर हो चाहे,
मानस अस्थिर भूड़ोलन था ।
गुप्त छुपी विधना की मनसा,
जान न पाये ये जग सारा ।
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।
जलावर्त में मकर फसी है,
चक्रवात में नभचर पाखी
मानव दोनों बीच घिरा है ,
जब तक जल न भये वो लाखी।
कहां देश को गमन सभी का ,
जान न पाये ये जग सारा ।
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।
कुसुम कोठारी।
सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका, उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
Deleteबहुत बहुत आभार आदरणीय चर्चा मंच के लिए रचना का चुनाव सदा प्रसन्नता का विषय है।
ReplyDeleteमैं अवश्य उपस्थित रहूंगी।
बहुत बहुत स्नेह ज्योति बहन ।
ReplyDeleteढेर सा आभार।