लालसा
है छलावा हर दिशा में
धुंध के बादल उमड़ते
दिन सजाता कामनाएं
वस्त्र बहु रंगीन पहने
श्याम ढ़लते लाद देते
रत्न माणिक हीर गहने
स्वप्न नित बनकर पखेरू
बादलों के पार उड़ते।
बाँध कर के पाँख मोती
मन अधीरा फिर भटकता
नापता है विश्व सारा
मोह जाले में अटकता
भूलता फिर सब विवेकी
ज्ञान के तम्बू उखड़ते।।
लालसा का दास मानव
नाम की बस चाह होती
अर्थ के संयोग से फिर
भावना की डोर खोती
द्वेष की फिर आँधियों में
मूल्य के उपवन उजड़ते।।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'
दिन सजाता कामनाएं
ReplyDeleteवस्त्र बहु रंगीन पहने
श्याम ढ़लते लाद देते
रत्न माणिक हीर गहने
स्वप्न नित बनकर पखेरू
बादलों के पार उड़ते। वाह बेहतरीन रचना सखी 👌
सखी मोहक उपस्थित आपकी मन लुभा जाती है।
Deleteसस्नेह आभार।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत बहुत आभार आदरणीय।
Deleteमैं मंच पर जरूर उपस्थित रहूंगी।
सादर।
गज़ब दी हर बंद सराहनीय।
ReplyDeleteसादर
बहुत बहुत सा स्नेह अनिता आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह।
अति सुंदर कृति ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteब्लाग पर सदा आपका इंतजार रहेगा
सस्नेह।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ३० अक्टूबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह आपका पुनः सक्रिय होना सुखद और आनंदित करने वाला है ।
Deleteढेर सारा आभार,मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी अवश्य।
सस्नेह।
उम्दा सृजन
ReplyDeleteबहुत बहुत सा स्नेह आभार,बहना आपको ब्लाग पर देख कर सदा ढेर सी खुशी मिलती है।
Deleteसस्नेह।
वाह
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteसत्य है आदरणीय दीदी जी इन विकारों के आगे मनुष्य रोज़ छला जाता है। इस धुंध के आगे विवेक जैसे क्षीण हो चला। बहुत खूब लिखा आपने आदरणीय दीदी जी। सादर प्रणाम 🙏
ReplyDeleteबहुत बहुत ढेर सा स्नेह,आँचल आपकी मनभावन टिप्पणी सदा उर्जा प्रदान करती है, सुंदर विश्लेषण।
Deleteसस्नेह।
आदरणीया मैम,
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर कविता जो कि मानव मन की दशा बता कर व्यक्ति को विकारों से सचेत रहने का संदेश देती है। मेरे ब्लॉग पर आकर अपनी उत्साह वर्धक टिप्पणी अंकित करने के लिए हृदय से आभार। कृपया आती रहें और अपना आशीष बनाये रखें। सुंदर रचना के लिए हृदय से आभार व सादर नमन।
बहुत बहुत स्नेह आभार बहना आपकी रचना को विस्तार देती टिप्पणी मनभावन सार्थक है।
Deleteआपके ब्लॉग पर मौका मिलते ही आती हूं, बस व्यस्तता के चलते कुछ ब्लाग कई दफा छूट जाते हैं फिर भी प्रयास रहता है सभी को पढूं बस टिप्पणी कई बार छूट जाती है ।
आपकी रचनाएं बहुत आकर्षक सार्थक होती है।
बहुत ही सुंदर रचना,कुसुम दी।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार ज्योति बहन मन खुश हुआ।
Deleteसस्नेह।
स्वप्न नित बनकर पखेरू
ReplyDeleteबादलों के पार उड़ते....
कविता के हर बंद को सुगठित, सुरुचिपूर्ण शब्दों में बाँधते हुए अद्भुत स्रजन किया है आपने....सभी पंक्तियाँ अनमोल विचारों से सुसज्जित हैं। जैसे -
द्वेष की फिर आँधियों में
मूल्य के उपवन उजड़ते !!!
बहुत बहुत आभार मीना जी आपकी उपस्थिति वैसे भी रचना को प्रवाह व उर्जा देती है ।
Deleteबहुत सुंदर व्याख्यात्मक प्रतिक्रिया आपकी, मन प्रसन्न हुआ।
सस्नेह ।
आते रहिएगा।
लालसा का दास मानव
ReplyDeleteनाम की बस चाह होती
अर्थ के संयोग से फिर
भावना की डोर खोती
द्वेष की फिर आँधियों में
मूल्य के उपवन उजड़ते।।.
बहुत ही चिंतन परक रचना प्रिय कुसुम बहन. ये लालसायें ही इंसान को जीवन भर भटकाती हुई कभी चैन से जीने नहीं देती. सार्थक रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏
बहुत बहुत आभार आपका रेणु बहन।
Deleteहमेशा कि तरह आपकी व्याख्यात्मक उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया
रचना को मूल्यवान बनाती है।
बहुत सुंदर सटीक विश्लेषण।
सस्नेह आभार।
उत्कृष्ट सृजन
ReplyDeleteबहुत बहुत सा आभार आपका।
Deleteब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।
सस्नेह।
प्रभावपूर्ण प्रस्तुति !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteब्लाग पर सदा स्वागत है आपका आते रहिएगा सस्नेह।