Thursday, 30 June 2022

एक नीड़ बना न्यारा

बाल गीत


एक नीड़ बना न्यारा।


लंकापति की स्वर्ण नगरिया

भरती दिखती पानी।

चिड़िया जी ने नीड़ बनाया

लगती उसकी रानी।


टूटी सी कंदील सजी है

तिनका-तिनका जोड़ा।

नहीं किसीका सदन उजाड़ा

पादप एक न तोड़ा।


ठाठ लगे हैं राज भवन से

राजदुलारे खेले।

माँ बैठी मन मुस्काए

खुशियों के हैं मेले।


चोंच खोल कर नेह जताए

माँ गोदी में लेलो

या तुम भी अब अंदर आकर

साथ हमारे खेलो ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Tuesday, 28 June 2022

विरहन की पाती


 विरहन की पाती


पिव आने की आशा मन में

मृगनयनी छत पर चढ़ आती।

नख सिख तक श्रृंगार रचाए

लेकर हाथ कलम अरु पाती।।


चाँद किरण से बातें करती

खंजन आँखें राह निहारे

थोड़ी सी आहट पर चौंकी

पिया दरश को नैना हारे

बदरी ने आँसू छलकाये

नन्हीं बूँदे आस दिलाती।।


सुनो कलापी मेरे भाई

सजना को दे दो संंदेशा

पत्र लिखूँ कुछ मन की बातें

उपालंभ भी अरु अंदेशा 

पवन झकोरा चला मचल कर

उड़ा ले गया लेख अघाती।।


स्वामी के बागों में जाकर

पीहू पीहू तान सुनाना

नाच नाचना मोहक ऐसे

उन को मेरी याद दिलाना

साथ उन्हें लेकर घर आना

नहीं याद अब मन से जाती।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 26 June 2022

मनोवृतियाँ


 गीतिका (हिंदी गजल) मापनी:-

1212 212 122 1212 212 122.


मनोवृत्तियाँ


धुआँ धुआँ सा गगन हुआ है बुझा बुझा सा प्रकाश दिखता।

न चाँद पूरा दिखे धरा से नहीं कहीं पर उजास दिखता।।


करें अहित के विरुद्ध बातें दिखा रहे हैं महान निज को।

रहस्य खुलने लगे उन्हीं के मलिन हुआ सा विभास दिखता।।


लिखे गए जो कठिन समय में वही लेख अब मिटा रहे हैं।

धरोहरों को उजाड़ने का हुआ कपट ये प्रयास दिखता।।


अलख जगा कर रखा जिन्होंने खरी-खरी की दहाड़ भरते।

दिखावटी ढब अभी खुले हैं छुपा छुपा सा खटास दिखता।।


करे धरे जो नहीं कभी कुछ हरा हरा बस दिखा रहे हैं ।

पड़ा परिश्रम अभी अभी तो उड़ा उड़ा सा निसास दिखता ।।


उन्हें न मुठ्ठी गगन मिला है झुका झुका सिर नयन उदासी। 

श्रमिक रहा है सदा प्रताड़ित थका थका फिर विकास दिखता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 20 June 2022

उधेड़ बुन


 उधेड़-बुन


श्वास उखड़ती रात ढली है

सोई जाकर कक्ष।

सोन तार से कंबल ओढ़े

खड़ा अभी तक यक्ष।


कान खुजाते पल क्षण बीता

रखता आँखे बंद

और उबासी लेती करवट

नींद बची है चंद

बलध कोहलू जीवन सारा

घूम रहा है अक्ष।


संकेत यंत्र संचालित हैं

भेड़ें खाती चोट

जिस लाठी से गधे हांकते

उसी छड़ी से घोट 

रेंग रही है सबकी गाड़ी

ये हैं चालक दक्ष।


सिंघासन में भारी बल है

उँगली खेले खेल

इंजन ईंधन फूंक रहा है

खड़ी हुई है रेल

पीस रही है घट्टी दाने

सौ सहस्त्र या लक्ष।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 17 June 2022

मरुधरा री बलती।(लू)


 मरुधरा री बलती(लू)


आंख्या भरती बालूड़ी स्यूँ

आसराम भट्टी तपता।

खदबद करता दिवस रैण ज्यूँ

बड़ चुला में छाना खपता।


नैण तरसग्या ऊपरे तकता

काली कलायण दूर न दीसे

आग उगालतो सूर बिरानों

लागे जमड़ो दांती पीसे

अरे राम जी किरपा कर तू

मास गुजरियो माला जपता।।


खड-खड़ बाजे खिड़क किवाँड़्याँ

पोळां तरसे  मिनखा ने

भटक रह्या है पांख डांगरा

ठाँव -छाँव अरु तिनका ने

घिरे न बदली एक पहर भी

मास बितग्यो आँख्याँ टपता।।


हरियाली रा रूँख न दीसे

सूख खेजड़्या खोखा झड़ता

कुण बुहारे निंबोल्याँ ने

लू लपट रा कोड़ा पड़ता

कईंयाँ डालैं धान खेत में

पानी बिकतो सरवा नपता।।


नेह देह सब झुलस रया है

बूढ़ी पीपली पात परोसें

खाली ठिकर ठन-ठन बोले 

हिय पानी री बूंदा ने तरसे।

ताल कुंड तली तक खाली

पगथल्याँ री छाप छपता।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'


बालूड़ी/रेत, आसराम/कमरे , बड़ /बड़े, 

छाना/उपला, खपता/ खपजाना, काली कलायण/काले घने बादल, सूर /सूरज, बिरानों/पराया, जमड़ो/ यम, दांती /दांत बत्तीसी, किंवाड़्याँ/ किवाड़, खिड़क/बाहर का दरवाजा, मिनख/आदमी या मनुष्य, पोळां/ हवेली महल के बड़े बड़े द्वार, पांख/पक्षी, डांगरा/पशु, टपता /बिना पलक झुकाए, रूंख /पेड़, खोखा/ परिपक्व सांगरी, सरवा/ घड़े पर रखने वाला लोटा, पात /पत्ते ,ठिकर-बर्तन पगथल्याँ=पगथली।

Tuesday, 14 June 2022

आम आदमी


 आम आदमी 


यामिनी ने नेह जोड़ा

तम जगत में भर चला

राग के पल साथ लेकर

दीप धुँधला सा जला।


डोलती परछाइयों में

क्लाँत मुखरित भाव है

पर पगों की चपलता में

देहरी का चाव है

छाँव हो सर पर निकेतन

सत्व निज का ही पला।।


आम मानस के पटल का

बस गणित सामान्य है

सब उड़ानें हैं सहज सी

आज भर का धान्य है

दर्द के संसार पर तो

नींद का पहरा भला।।


ढो रहे दुर्भाग्य को ही

रस कहीं दिखता नहीं

वो विधाता भाग्य दाता 

चैन पल लिखता नहीं

हर निशा ये बात कहती

आज का दिन अब टला।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 10 June 2022

प्रथम वर्षा


 प्रथम वर्षा


कोकिले सुन तान तेरी

हो मुदित मन घूम नाचे

है भुवन आनंद छाया

बिन खरच के सूम नाचे।


सरसराती दामिनी है

द्यो नगाड़े बज रहे हैं

श्याम बादल नीर थामे

धैर्य अपना तज रहे हैं

झूमते हैं बाल बाला

साथ उनके टूम नाचे।।


आसमा से मोद उतरा

और पुलकित हैं सकल जग

लो प्रथम बारिश नवेली

आ गई होले धरे पग  

रागिनी वर्षा सुनाए

ये धरा फिर झूम नाचे।


पर्वतों की चोटियों को

स्नान मल-मल के कराती

पात मंजुल झूमते है

सज चले हैं ज्यों बराती

सनसनाती है हवाएँ

पादपों को चूम नाचे।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 8 June 2022

रूपसी


 गीतिका (हिंदी ग़ज़ल)

221 2121 1221 212


रूपसी


सज रूप को निखार रुचिर कामिनी चली।

वो अप्सरा समान गगन स्वामिनी चली।।


है लट छटा अनूप सुमन वेणिका धरे।

रख चाँद को ललाट लगे यामिनी चली।


शुक नासिका उदार लिए स्वर्ण नथनिया।

रतनार है कपोल शिशिरयामिनी चली।


है मंद हास रेख अधर पर खिली खिली।

वो रूपसी सुहास चटक दामिनी चली।


दो हाथ पर सुवास खिला आलता रचा।

ज्यों नेह भार साथ लिए पद्मिनी चली।


जब पाँव उठ उमंग चले आज प्रीत के।

है झाँझरी अधीर कहीं रागिनी चली।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'