भावना के भँवर
मन की गति कोई ना समझे
डोला घूमा हर कण हर कण।
कभी व्योम चढ़ कभी धरा पर
उड़ता फिरता मारा-मारा
मिश्री सा मधुर और मीठा
कभी सिंधु सा खारा-खारा
कोई इसको समझ न पाया
समझा कोई ये तो है तृण।।
कभी दूर तक नाता जोडे
नहीं सुधी है कभी पास भी
सन्नाटे में भटका खाता
कभी दमक की लगे आस भी
कैसे-कैसे स्वांग रचाए
मिलता है जाकर के मृण-मृण।।
नर्म कभी फूलों सा कोमल
कभी लोहे सा कठिन भारी
मोह फेर में पड़ता प्रतिपल
कभी निर्दयी देता खारी
भावना के गहरे भँवर में
डूबे उभरे पल क्षण पल क्षण।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर।
खूबसूरत पंक्तियाँ।
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका नीतिश जी।
Deleteउत्साह वर्धन हुआ आपकी प्रतिक्रिया से।
सादर।
कभी दूर तक नाता जोडे
ReplyDeleteनहीं सुधी है कभी पास भी
सन्नाटे में भटका खाता
कभी दमक की लगे आस भी
कैसे-कैसे स्वांग रचाए
मिलता है जाकर के मृण-मृण।।..बहुत खूब !
हर मन को पढ़ती और परिभाषित करती रचना ।
आपकी टिप्पणी से लिखन सार्थक हो जाता है,और नये सृजन की ऊर्जा मिलती है प्रिय जिज्ञासा जी।
Deleteसदा यूं ही स्नेह देती रहें ।
सस्नेह आभार।
आपको पढ़ना सुखद है सखि
ReplyDeleteऔर आपका ब्लॉग पर आना बेहद उत्साहवर्धक है।
Deleteसस्नेह सखी।
वाह बहुत ही शानदार प्रस्तुति
ReplyDeleteशब्दों का चयन बहुत ही शानदार व खूबसूरत है जितनी तारीफ की जाए कम है
बहुत बहुत आभार आपका प्रिय मनीषा,आपकी प्रतिक्रिया से रचना को नये आयाम मिले।
Deleteसस्नेह।
मन कल्पना का ही दूसरा नाम है, सुंदर चित्रण
ReplyDeleteजी सत्य ।
Deleteसुंदर समर्थन देते उद्गार लेखन सार्थक हुआ।
सस्नेह।
मन की गति को और उसको समझना दोनों ही मुश्किल ...
ReplyDeleteइसको गति को जानना तो असम्भव है ...
जी सही कहा नासवा जी आपने।
Deleteआपकी गूढ़ प्रतिक्रिया से रचना प्रवाहित हुई।
सादर।
हृदय से आभार आपका कामिनी जी।
ReplyDeleteमैं चर्चा पर उपस्थित रहूंगी।
सादर सस्नेह।