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Friday, 10 December 2021

भावना के भँवर

भावना के भँवर


मन की गति कोई ना समझे

डोला घूमा हर कण हर कण।


कभी व्योम चढ़ कभी धरा पर

उड़ता फिरता मारा-मारा

मिश्री सा मधुर और मीठा

कभी सिंधु सा खारा-खारा

कोई इसको समझ न पाया

समझा कोई ये तो है तृण।।


कभी दूर तक नाता जोडे

नहीं सुधी है कभी पास भी

सन्नाटे में भटका खाता

कभी दमक की लगे आस भी

कैसे-कैसे स्वांग रचाए

मिलता है जाकर के मृण-मृण।।


नर्म कभी फूलों सा कोमल

कभी लोहे सा कठिन भारी 

मोह फेर में पड़ता प्रतिपल

कभी निर्दयी देता खारी

भावना के गहरे भँवर में 

डूबे उभरे पल क्षण पल क्षण।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

15 comments:

  1. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय

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    1. जी हृदय से आभार आपका।
      सादर।

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  2. खूबसूरत पंक्तियाँ।

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    1. जी हृदय से आभार आपका नीतिश जी।
      उत्साह वर्धन हुआ आपकी प्रतिक्रिया से।
      सादर।

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  3. कभी दूर तक नाता जोडे

    नहीं सुधी है कभी पास भी

    सन्नाटे में भटका खाता

    कभी दमक की लगे आस भी

    कैसे-कैसे स्वांग रचाए

    मिलता है जाकर के मृण-मृण।।..बहुत खूब !
    हर मन को पढ़ती और परिभाषित करती रचना ।

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    1. आपकी टिप्पणी से लिखन सार्थक हो जाता है,और नये सृजन की ऊर्जा मिलती है प्रिय जिज्ञासा जी।
      सदा यूं ही स्नेह देती रहें ।
      सस्नेह आभार।

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  4. आपको पढ़ना सुखद है सखि

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    1. और आपका ब्लॉग पर आना बेहद उत्साहवर्धक है।
      सस्नेह सखी।

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  5. वाह बहुत ही शानदार प्रस्तुति
    शब्दों का चयन बहुत ही शानदार व खूबसूरत है जितनी तारीफ की जाए कम है

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    1. बहुत बहुत आभार आपका प्रिय मनीषा,आपकी प्रतिक्रिया से रचना को नये आयाम मिले।
      सस्नेह।

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  6. मन कल्पना का ही दूसरा नाम है, सुंदर चित्रण

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    1. जी सत्य ।
      सुंदर समर्थन देते उद्गार लेखन सार्थक हुआ।
      सस्नेह।

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  7. मन की गति को और उसको समझना दोनों ही मुश्किल ...
    इसको गति को जानना तो असम्भव है ...

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    1. जी सही कहा नासवा जी आपने।
      आपकी गूढ़ प्रतिक्रिया से रचना प्रवाहित हुई।
      सादर।

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  8. हृदय से आभार आपका कामिनी जी।
    मैं चर्चा पर उपस्थित रहूंगी।
    सादर सस्नेह।

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