गाँव की स्मृति
दो घड़ी आ पास बैठें
पीपली की छांव गहरी
कोयली की कूक सुन कर
गोखरू की झनक ठहरी ।।
वो दिवस कितने सुहाने
दौड़ते नदिया किनारे
बाग में अमियां रसीली
मोर नाचे पंख धारे
खाट ढ़लती चौक खुल्ले
नील नभ पर चाँद फेरी।।
वात में था प्राण घुलता
धान से आँगन गमकता
बोलियाँ मीठी सरस सी
तेज से आनन दमकता
दर्द सुख सब साथ सहते
प्रीत गहरी थी घनेरी।।
चल पड़े उठ उठ कदम फिर
खींचता वो कल्प सुंदर
भूमि के राजा सभी थे
और सब मन के सिकंदर
सोचता मन गाँव प्यारा
ये डगर रंगीन मेरी ।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बहुत खूवसुरत दृश्य उकेरा है । सुंदर सृजन ।
ReplyDeleteसस्नेह आभार आपका संगीता जी आपको रचना पसंद आयी लेखन सार्थक हुआ।
Deleteसस्नेह।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल .मंगलवार (8 -6-21) को " "सवाल आक्सीजन का है ?"(चर्चा अंक 4090) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी, रचना को चर्चा में स्थान देने के लिए।
Deleteसादर।
गांव का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है आपने।
ReplyDeleteआप को पसंद आई! लेखन सार्थक हुआ ज्योति बहन।
Deleteसस्नेह आभार।
चल पड़े उठ उठ कदम फिर
ReplyDeleteखिंचता वो कल्प सुंदर
भूमि के राजा सभी थे
और सब मन के सिकंदर
बेहतरीन रचना
बहुत बहुत आभार आपका उत्साहवर्धन करती सुंदर प्रतिक्रिया।
Deleteसादर।
गाँव सच में प्यारा है, बस वह प्यारा बना रहे। शीर्षक में लगता है कुछ अशुद्ध टाइप हो गया है।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका रचना को नव उर्जा मिली ।
Deleteजी शीर्षक में गलती पर ध्यान दिलवाने के लिए हृदय से आभार।
ब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका।
सादर।
वाह!गज़ब दी सभी बंद सराहना से परे।
ReplyDeleteखाट ढ़लती चौक खुल्ले
नील नभ पर चाँद फेरी...वाह!👌
बहुत बहुत आभार आपका अनिता, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह।
गाँव की तो बात ही निराली है। बहुत खूब।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका नीतिश जी।
Deleteउत्साहवर्धक शब्दों से नवगीत सार्थक हुआ।
सादर।
शानदार रचना और मेरा पसंदीदा विषय...खूब कुसुम जी।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका,रचना का विषय पसंद आया रचना सार्थक हुई।
Deleteउर्जा वान प्रतिक्रिया।
सादर।
बहुत ही शानदार रचना प्रज्ञा जी 💐💐💐
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका नीतू जी,
Deleteउत्साहवर्धन हुआ।
सस्नेह।
धीरे-धीरे गांव भी शहरों की जहरीली मानसिकता का शिकार होते चले जा रहे हैं ! सब कुछ बदलता जा रहा है
ReplyDeleteजी ! सही कहा आपने अब गाँवों में भी शहर पसरने लगे हैं, ग्रामीण शहरों की तरफ दौड़ रहे हैं और वापसी में शहरों की मनोवृत्ति लेकर ही आते हैं सार्थक प्रतिक्रिया।
Deleteसादर आभार आपका।
चल पड़े उठ उठ कदम फिर
ReplyDeleteखिंचता वो कल्प सुंदर
भूमि के राजा सभी थे
और सब मन के सिकंदर
सोचता मन गाँव प्यारा
ये डगर रंगीन मेरी ।।
जब सभी भूमि के राजा और मन के सिकन्दर थे तभी तो संतुष्टि के भाव थे सबमें...खुशियाँ भी थी
लाजवाब सृजन हमेशा की तरह सुन्दर एवं सार्थक।
सुधाजी आपकी विस्तृत टिप्पणी सदा रचना के समानांतर रचना को प्रवाह देती है ।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका।
सस्नेह।
चल पड़े उठ उठ कदम फिर
ReplyDeleteखींचता वो कल्प सुंदर
भूमि के राजा सभी थे
और सब मन के सिकंदर
वाह !! अति सुन्दर सृजन ।
बहुत बहुत आभार आपका मीना जी।
Deleteआपकी प्रतिक्रिया सदा मनोबल बढ़ाती है।
सस्नेह।
बहुत बहुत सुन्दर मधुर रचना
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आलोक जी, उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
Deleteसादर
मेरी रचना आपकी सुंदर अनुभूतियों को समर्पित है,आपको मेरा सादर नमन।
ReplyDeleteएक दिन मुझसे कहा मेरे बूढ़े से मन ने
चलो लौट चलें बचपन के आंगन में
वहाँ अपनी धूप होगी अपनी ही छाँव
होगा वही अपना पुराना गाँव
लेटकर झुलेंगे झिलगी खटिया की वरदन में
पेड़ पर चढ़ेंगे खेलेंगे लच्छी डाड़ी
गुल्ली डंडा लंगड़ी और सिकड़ी
चुरा के तोड़ेंगे कच्ची अमियां गाँव भर की बगियन में
चलेंगे नदिया तलाव नहाने हम
गोता लगायेंगे झमाझम
छप्पक छैया खेलेंगे पोखरन में
सावन आएगा बरखा बरसेगी
दुआरे पिछवारे तलैया खूब भरेगी
नाव नवरिया खेलेंगे चाँदनी रतियन में
किताब बस्ता लेकर स्कूल चलेंगे हम सब
इमला गिनती पढ़ाएँगे मास्टर साहब
पहाड़ा उनको हम सुना देंगे सेकंडन में
खाएँगे अम्मा के हाथ की रोटी औ दाल ज़बरिया देंगी वो खूब ही मक्खन डाल
ज़्यादा खिला देंगी वो फँसा के बतियन में
चलो लौट चलें गांव के आंगन में....
जिज्ञासा सिंह..
वाह! बहुत बहुत सुंदर।
ReplyDeleteरचना के प्रतिक्रिया में इतनी सुंदर मुग्ध करती कविता ,आँचलिक शब्दों का पूट लिये हृदय के करीब का सृजन।
बहुत प्यारी रचना।
अप्रतिम।