भोर विभोर
उदयांचल पर फिर से देखो
कनक गगरिया फूटी
बहती है कंचन सी धारा
चमकी मधुबन बूटी
दिखे सरित के निर्मल जल में
घुला महारस बहता
हेम केशरी फाग खेल लो
कल कल बहकर कहता
महारजत सी मयूख मणिका
दिनकर कर से छूटी।।
पोढ़ रही हर डाली ऊपर
उर्मि झूलना झूले
स्नेह स्पर्श जो देती कोरा
बंद सुमन भी फूले
रसवंती सी सभी दिशाएं
नीरव चुप्पी टूटी।।
नील व्योम पर कलरव करती
उड़े विहग की टोली
कितनी मधुर रागिनी जैसी
श्याम मधुप की बोली
कुंदन वसन अरुण ने पहने
बीती रात कलूटी।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
उदयांचल पर फिर से देखो
ReplyDeleteकनक गगरिया फूटी
बहती है कंचन सी धारा
चमकी मधुबन बूटी
... भाव विभोर कराती अनुपम रचना आदरणीया कुसुम जी। लाजवाब सृजन।
बहुत खूब..लगा महादेवी जी की रचना पढ़ रही हूँ.सुन्दर शब्दों की आभा से सुसज्जित कृति..
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (23-12-2020) को "शीतल-शीतल भोर है, शीतल ही है शाम" (चर्चा अंक-3924) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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भोर का आगमन नव निर्माण की आशा ... मधुर भाव ...
ReplyDeleteवाह अनुपम
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ReplyDeleteउदयांचल पर फिर से देखो, कनक गगरिया फूटी
ReplyDeleteबहती है कंचन सी धारा, चमकी मधुबन बूटी''
क्या बात है ! वाह
वाह! बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन दी।
ReplyDeleteप्रकृति और आपका गहन संबंध है।
उम्दा अभिव्यक्ति।
बेहद खूबसूरत रचना सखी 👌
ReplyDeleteहृदय पुष्प को अत्यंत कोमलता से मानो खोला जा रहा हो .... मधुर गुंजन ।
ReplyDeleteप्रकृति आपके दिल के काफी करीब है,बहुत ही मनमोहक कविता,सादर नमन कुसुम जी
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteनील व्योम पर कलरव करती
ReplyDeleteउड़े विहग की टोली
कितनी मधुर रागिनी जैसी
श्याम मधुप की बोली
कुंदन वसन अरुण ने पहने
बीती रात कलूटी।।
वाह वाह... भोर विभोर से मन विभोर हो गया
बहुत ही सुन्दर मनोरम भोर का चित्र मनमस्तिष्क में अंकित करता लाजवाब नवगीत अद्भुत बिम्बों के साथ।