भोर से दोपहर तक
उर्मियों से कंठ लग कर
ओस झट से झिलमिलाई
देख कलिका एक सुंदर
तितलियाँ भी किलकिलाई।।
भोर की लाली उतर कर
मेदिनी के गात डोली
हर दिशा से आ रही है
पाखियों की धीर बोली
सौम्य सुरभित वात बहकर
पत्तियों से गिलबिलाई।।
गोपियों ने गीत गाए
अर्कजा का कूल प्यारा
श्याम वर्णी श्याम सुंदर
राधिका का रूप न्यारा
प्रीत बैठी फूँक मुरली
रागिनी भी खिलखिलाई।।
भानु का रथ दौड़ता सा
नील नभ पर डोलता है
बादलों के पार बैठा
हेम कोई तोलता है
अब चली सखियाँ सभी मिल
धूप खुलकर चिलचिलाई।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सकारात्मक भाव जगाती उत्तम रचना।
ReplyDeleteमोह निद्रा त्याग के तू
ReplyDeleteछोड़ दे आलस्य मानव
कर्म निष्ठा दत्तचित बन
श्रेष्ठ तू हैं विश्व आनव
उद्यमी अनुभूतियाँ ही
हार में भी जीत देती।।
वाह!!!
बहुत ही प्रेरक लाजवाब सृजन ।