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Sunday, 3 July 2022

द्वेष की अग्नि


 द्वेष की अग्नि


अगन द्वेष की ऐसी भड़की 

शब्द बुझा कर जहर गए।


बीती बातें राख झाड़ कर 

कदम बढ़ाया जीवन में 

एक ग्रंथि पर टीस मारती 

यकबक मन के आँगन में 

चोट पुरानी घाव बन गई 

शूल याद में लहर गए।।


घात लगी कोमल अंतस पर 

आँखें भूल गईं रोना 

मनोवृत्ति पर ठोकर मारी 

दरक गया कोना-कोना 

ठूँठ बनी ज्यों कोई माता 

पूत छोड़ जब शहर गये।।


शांत भाव का ढोंग रचा था 

खोल रखी थी बैर बही 

अवसर की बस बाट जोहता 

अंदर ज्वाला छदक रही 

चक्रवात अन्तस् में उठता 

भाव शून्य में ठहर गए ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

15 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज सोमवार(०४-०७-२०२२ ) को
    'समय कागज़ पर लिखा शब्द नहीं है'( चर्चा अंक -४४८०)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. सहृदय आभार आपका मैं मंच पर अवश्य उपस्थित रहूंगी।
      चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए हृदय से आभार।

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  2. Replies
    1. जी हृदय से आभार आपका।
      सादर।

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  3. Replies
    1. हृदय से आभार आपका।
      सादर।

      Delete
  4. घात लगी कोमल अंतस पर

    आँखें भूल गईं रोना

    मनोवृत्ति पर ठोकर मारी

    दरक गया कोना-कोना

    ठूँठ बनी ज्यों कोई माता

    पूत छोड़ जब शहर गये।।

    अपनों का छोड़कर जाना सच ठेस दे जाता है..हृदयस्पर्शी रचना ।

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    1. रचना के मर्म को समझने के लिए हृदय से आभार आपका जिज्ञासा जी।
      सस्नेह।

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  5. बेहद हृदयस्पर्शी सृजन।

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    1. हृदय से आभार आपका सखी।
      सस्नेह।

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  6. प्रभावी रचना

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    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
      सादर।

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  7. घात लगी कोमल अंतस पर

    आँखें भूल गईं रोना

    मनोवृत्ति पर ठोकर मारी

    दरक गया कोना-कोना

    ठूँठ बनी ज्यों कोई माता

    पूत छोड़ जब शहर गये।।

    आँखे भूल गयी रोना !!
    बहुत ही हृदयस्पर्शी उत्कृष्ट सृजन।

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  8. बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
    सस्नेह।

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  9. ऐसी ही कविताएं काव्य-जगत की धरोहर बनती हैं कुसुम जी। माँ शारदा का वरदहस्त है आप पर जो ऐसी रचनाएं आपके मानस-स्रोत से फूटती हैं।

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