वर्षा ऋतु का सौंदर्य और प्रकृति भिन्न सवैया में।
दुर्मिल सवैया /सरसी वसुधा
अब देख सुधा बरसी नभसे, टप बूँद गिरी धरती पट पे।
सरसी वसुधा हरषाय रही, इक बूँद लगी लतिका लट पे।
झक चादर भीग भई कजरी, रमती सखियाँ जमुना तट पे।
अरु श्याम सखा मुरली बजती, तब गोपन दृष्टि लगी घट पे।।
किरीट सवैया /महि का रूप
मंजुल रूप अनूप रचे महि, मोहित देख छटा अब सावन।
बाग तड़ाग सभी जल पूरित, पावस आज सखी मन भावन।
मंगल है शिव नाम जपो शुभ, मास सुहावन है अति पावन ।
वारि चढ़े सब रोग मिटे फिर, साधु कहे तन दाहक धावन।।
सुंदरी सवैया/ऋतु सावन
ऋतु सावन रंग हरी वसुधा, मन भावन फूल खिले सरसे है।
जल भार भरी ठहरी बदली, अब शोर करे फिर वो बरसे है।
जब बूंद गिरे धरणी पर तो, हर एक यहाँ मनई हरसे है।
बिन पावस मौसम सूख रहे, हर ओर बियावन सा तरसे है।।
मत्तगयंद सवैया/पावस के रंग
आज सुधा बरसे नभ से जब, भू सरसी महके तन उर्वी।
खूब भली लगती यह मारुत, धीर धरे चलती जब पूर्वी।
रोर करे घन घोर मचे जब,भीषण नीरद होकर गर्वी।
कश्यप के सुत झांक रहे जब, कोण चढ़े चमके नभ मुर्वी।।
दुर्मिम सवैया/ऋतु सौंदर्य
घन घोर घटा बरसे नभ से चँहु ओर तड़ाग भरे जल से।
चमके बिजली मनवा डरपे सरसे जल ताप हरे थल से।
मन मोहक ये ऋतु मोह गई घन ले पवमान उड़ा छल से।
अब फूट गई नव कोंपल है झुक डाल गई लदके फल से।।
प्रज्ञा सवैया/नेह की धार
शोभा कैसी धरा की दिखे मोहक ओढ़ के ओढ़नी मंजुल धानी।
कूके है कोयली बोल है पायल झांझरी ज्यों बजे वात सुहानी।
मेघा को मोह के जाल फंसाकर व्योम पे मंडरा बादल मानी।
प्यारी सी मोहिनी सुंदरी शोभित, नेह की धार है कंचन पानी।।
गंगोदक सवैया/ऋतु मन भावन
लो बसंती हवाएँ चली आज तो, मोहिनी सी बनी रत्नगर्भा अरे।
बादलों से सगाई करेगी धरा, है प्रतिक्षा उसे मेह बूंदें झरे।
डोलची नीर ले के घटा आ गई, शीश मेघा दिखे गागरी सी धरे।
रंग रंगी सुहावे हरी भू रसा, कोकिला गीत गाए खुशी से भरे।।
गंगोदक सवैया/श्रावणी मेघ
कोकिला कूकती नाचता मोर भी, मोहिनी मल्लिका झूमती जा रही।
आज जागी सुहानी प्रभाती नई, वात के घोट बैठी घटा आ रही।
श्रावणी मेघ क्रीड़ा करें व्योम में, गोरियाँ झूम के गीत भी गा रही।
बाग में झूलती दोलना फूल का, बाँधनी लाल रक्ताभ सी भा रही।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'