"चाँद बादल की लुका छिपी"
आज चाँद के नूर पर देखो
फिर बदरी सी छाई है ,
मौसम है कुछ महका-बहका
चंद्रिका घूंघट ओट कर आई है ,
क्या पीया मिलन को जाना है
जो यूं सिमटी सकुचाई है ,
अँखियां ऐसे झुकी कि
जैसे पहली मिलन रुत आई है ,
कभी छुपाये खुद को
बादल के मृगछौनो में ,
कभी झांकती हटा-घटा
घूंघट के कोनो से ,
निशा , चूनर तारों वाली
झिलमिल-झलकाती है ,
और कभी नीला-नीला
अपना आंचल लहराती है ,
आज बादलों ने देखो
चाँद से खेली छुपम छुपाई है ।
कुसुम कोठारी ।
बेहद खूबसूरत रचना कुसुम जी
ReplyDeleteजी सस्नेह आभार ।
Deleteवाह रूहानियत से लबरेज रचना मीता ..कोमल मन भाव छेड़ गई !
ReplyDeleteबदली जो चाँद पर छाई सरस भाव मन घोल गई
वाह शानदार प्रतिक्रिया मीता रचना मे रौनक भरती और लेखनी मे उत्साह भर्ती सी।
Deleteस्नेह आभार
वाह!!बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteसादर आभार शुभा जी।
Deleteबहुत सुंदर ...
ReplyDeleteमस्त गीत मिलन की महक ख़ुद को छिपाए ... मन मयूर को
महकाती रचना ...
सादर आभार आदरणीय। सक्रिय प्रतिक्रिया और सुन्दर प्रतिपंक्तियां
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