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Monday, 9 July 2018

विसंगतियों मे फसा मन

विसंगतियों मे फसा मन

था क्या मेरा जो खो दूंगी
मेरा ही जब मै नही अर्पण
क्या पाऊं क्या खोऊं
कागज की एक नाव पर
बैठ पार हो जाऊं
पिघलती लौ में डेरा डालूं
या चढ़ा दूं काष्ठ की हंडिया
हवा का एक सेतु बनाऊं
बिना डोर का झूला डालूं
बैठे-बैठे ख्वाब बुनूं
या सचमुच ही कुछ कर डालूं ।
था क्या मेरा......
         कुसुम कोठारी ।

9 comments:

  1. Replies
    1. बहुत बहुत आभार। अनुराधा जी ।

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  2. वाह सखी बहुत खूब लिखा
    विसंगति में भी क्या खूब कल्पना की
    बेहद शानदार ....सुन्दर

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    1. स्नेह आभार सखी आप के आने भर से सभी विसंगतियां संगत मे तब्दील हो जाती है।
      मनमोहक सराहना आपकी।

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  3. बहुत खूब....., मनभावन सृजन ।

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  4. वाह दीदी जी बहुत सुंदर
    अनमोल सीख देती लाजवाब रचना 👌

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    1. सस्नेह आभार आंचल बहन।
      रचना को आपका स्नेह सदा ही मिलता रहा है।
      सर्व मंगलमय हो

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