विसंगतियों मे फसा मन
था क्या मेरा जो खो दूंगी
मेरा ही जब मै नही अर्पण
क्या पाऊं क्या खोऊं
कागज की एक नाव पर
बैठ पार हो जाऊं
पिघलती लौ में डेरा डालूं
या चढ़ा दूं काष्ठ की हंडिया
हवा का एक सेतु बनाऊं
बिना डोर का झूला डालूं
बैठे-बैठे ख्वाब बुनूं
या सचमुच ही कुछ कर डालूं ।
था क्या मेरा......
कुसुम कोठारी ।
था क्या मेरा जो खो दूंगी
मेरा ही जब मै नही अर्पण
क्या पाऊं क्या खोऊं
कागज की एक नाव पर
बैठ पार हो जाऊं
पिघलती लौ में डेरा डालूं
या चढ़ा दूं काष्ठ की हंडिया
हवा का एक सेतु बनाऊं
बिना डोर का झूला डालूं
बैठे-बैठे ख्वाब बुनूं
या सचमुच ही कुछ कर डालूं ।
था क्या मेरा......
कुसुम कोठारी ।
बहुत खूब 👌👌
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार। अनुराधा जी ।
Deleteवाह सखी बहुत खूब लिखा
ReplyDeleteविसंगति में भी क्या खूब कल्पना की
बेहद शानदार ....सुन्दर
स्नेह आभार सखी आप के आने भर से सभी विसंगतियां संगत मे तब्दील हो जाती है।
Deleteमनमोहक सराहना आपकी।
जी सादर आभार।
ReplyDeleteबहुत खूब....., मनभावन सृजन ।
ReplyDeleteढेर सा आभार सखी
Deleteवाह दीदी जी बहुत सुंदर
ReplyDeleteअनमोल सीख देती लाजवाब रचना 👌
सस्नेह आभार आंचल बहन।
Deleteरचना को आपका स्नेह सदा ही मिलता रहा है।
सर्व मंगलमय हो