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Saturday, 28 July 2018

दिदारे रुखसार

.                दिदारे रुख सार

क्या बात की गेसुओं के बादल जाल बन गये
लाख  चाहा  होगा  न उलझे पर उलझ  गये।

चंदा से  मुख  पर  सितारे  सी बिंदी
दिदारे रुखसार को परवाने हो गये।

  अब ये  मुसाफिर दिल  कुर्बान तुझ पे
चाहे निकाल या पनाह दे,तेरे सहारे हो गये।

                 कुसुम कोठारी ।

9 comments:

  1. वाह बहुत खूब 👌👌👌

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    1. आभार मित्र जी बहुत सा ।

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  2. लाजवाब सखी बहुत गहरी सोच

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    1. शुक्रिया सखी ढेर सा

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  3. क्या बात ..क्या बात ... क्या बात ...
    गेसुओ में उलझा चन्दा माथे बिंदिया सा चमका ...
    बेहतरीन मीता रोचकता से परिपूर्ण काव्य

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  4. बहुत खूब ...
    ये गेसू यादें हैं जिनसे छुटकारा पाना आसान नहीं ...
    लाजवाब केनवस ...

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    1. जी सादर आभार आपका ना वा जी ।

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    2. क्षमा करें..
      नासवा जी पढे।

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