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Monday, 3 February 2020

क्षितिज के पार __नवगीत

नवगीत
मात्रा:-14  10

सौरभ भीनी लहराई
दिन बसंती चार ।
आ चलूं मैं साथ तेरे
क्षितिज के उस पार ।

नीले-नीले अम्बर पर
उजला रूप इंदु ।
सुनंदा के भाल पर ज्यों
सजे सुहाग बिंदु।
मन मचलती है हिलोरें
छाई है बहार।
आ चलूं मैं साथ तेरे
क्षितिज के उस पार ।।

मंदाकिनी है केसरी
गगन रंग गुलाब ।
चँहु दिशाओं में भरी है
मोहिनी सी आब ।
सजीली दुल्हन चली ज्यों
कर रूप शृंगार ।
आ चलूं मैं साथ तेरे
क्षितिज के उस पार।।

चमकते झिलमिल सितारे
क्षीर नीर सागर ।
क्षितिज के उस पार शायद
सपनों का आगर ।
चाँद तारों से सजा हो
द्वार बंदनवार ।
आ चलूं मैं साथ तेरे
क्षितिज के उस पार।।
 
         कुसुम कोठारी।

5 comments:

  1. प्रकृति के सौंदर्य को आप सदैव अपनी लेखनी का रंग देकर , जिसतरह से निखारती हैंं, वह अद्भुत है। आपकी लेखन क्षमता का नमन कुसुम दी।

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  2. वाह आदरणीया कुसुम दीदी बसंत ऋतु की मनमोहिनी छटा बिखेरता बहुत सुंदर नवगीत रचा है आपने. प्रकृति का सानिध्य हमारे मर्म को छूकर उत्कृष्ट भावों से हृदय को भरता है.
    बहुत ही सुन्दर और मनभावन है आपका यह नवगीत.
    सादर स्नेह

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  3. वाह! भाव विभोर करता हृदयस्पर्शी नवगीत. कोमलकांत पदावली ने नवगीत का कलापक्ष सुगढ़ बना दिया है. नवगीत लेखन के लिये उपयुक्त उदाहरण है आपका यह नवगीत आदरणीया दीदी.
    छंदबद्ध रचनाओं की ओर पाठक को आकर्षित करता नवगीत निस्संदेह प्रशंसनीय है.
    बधाई एवं शुभकामनाएँ.

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  4. कोमलकांत पदावली में प्रकृति का मनमोहक चित्रण । अत्यंत सुन्दर सृजन ।

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