Followers

Friday, 2 April 2021

इल्ज़ाम ढ़ूढते हैं


 इल्ज़ाम ढूंढ़ते हो !


ये क्या कि पत्थरों के शहर में 

शीशे का आशियाना ढूंढ़ते हो!


आदमियत  का पता  तक  नही

गज़ब करते हो इन्सान ढूंढ़ते हो !


यहाँ पता नही किसी नियत का

ये क्या कि आप ईमान ढूंढ़ते हो !


आईनों में भी दगा भर गया यहाँ 

अब क्यों सही पहचान ढूंढ़ते हो !


घरौदें  रेत के बिखरने ही तो थे

तूफ़ानों पर क्यूँ इल्ज़ाम ढूंढ़ते हो !


जहाँ  बालपन भी  बुड्ढा  हो गया 

वहाँ मासुमियत की पनाह ढूंढ़ते हो !


भगवान अब महलों में सज़ के रह गये 

क्यों गलियों में उन्हें सरे आम ढूंढ़ते हो। 


              कुसुम कोठारी "प्रज्ञा "

14 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०३-०४-२०२१) को ' खून में है गिरोह हो जाना ' (चर्चा अंक-४०२५) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।

    ReplyDelete
  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 02 अप्रैल 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
  3. भगवान अब महलों में सज़ के रह गये

    क्यों गलियों में उन्हें सरे आम ढूंढ़ते हो।

    वाह लाजवाब सृजन सखी 👌👌

    ReplyDelete
  4. बहुत अच्छा लिखा है आपने...

    ReplyDelete
  5. यथार्थपूर्ण रचना, आज के दौर में बदलती मानसिकता पर गहरी चोट कर गई ।

    ReplyDelete
  6. ये क्या कि पत्थरों के शहर में
    शीशे का आशियाना ढूंढ़ते हो!

    आदमियत का पता तक नही
    गज़ब करते हो इन्सान ढूंढ़ते हो !
    वाह!! बहुत खूब !! अति सुन्दर !!

    ReplyDelete
  7. आपकी तो प्रत्येक रचना सबसे न्यारी होती है कुसुम जी । यह भी अपवाद नहीं ।

    ReplyDelete
  8. बहुत ही सुन्दर सराहनीय रचना ।

    ReplyDelete
  9. आदमियत का पता तक नही

    गज़ब करते हो इन्सान ढूंढ़ते हो !

    सच कह दिया
    हर शेर अपने आप में मुक्कमल

    ReplyDelete
  10. ''भगवान अब महलों में सज़ के रह गए........
    बहुत ही सुंदर

    ReplyDelete
  11. बहुत बहुत सुंदर रचना

    ReplyDelete
  12. सुबह 9 बजे ही इस रचना को पढ़ लिया था, जैसे ही टिप्पणी करने जा रही थी, किसी ने आवाज दी और काम मे व्यस्त हों गई,अब फुर्सत मिली लेकिन सोचा न था कि आप मुझसे आगे हो जायेंगी, खरगोश और कछुये की कहानी याद आ गई,मेरी चाल देखकर कुसुम जी,
    जैसा सभी ने कहा रचना बेहद खूबसूरत है , हर एक शेर दमदार, बहुत सारी बधाईयाँ इस शानदार पोस्ट के लिए

    ReplyDelete
  13. घरौदें रेत के बिखरने ही तो थे
    तूफ़ानों पर क्यूँ इल्ज़ाम ढूंढ़ते हो !



    जहाँ बालपन भी बुड्ढा हो गया
    वहाँ मासुमियत की पनाह ढूंढ़ते हो !

    वाह!!!
    बहुत ही लाजवाब गजल....
    एक से बढ़कर एक शेर।



    ReplyDelete