यौतुक की जलती वेदी
विद्रुप हँसकर यौतुक बोला
मेरा पेट कुए से मोटा
लिप्सा मेरी नहीं पूरता
थैला मुद्रा का छोटा।
दुल्हा बिकता ढेर दाम में
दाम चुकाने वाला खाली
वस्तु उसे ठेंगा मिलती है
खाली होती घर की थाली
बिकने वाला खून चूसता
मानुषता का पूरा टोटा।
बेटी घर को छोड़ चले जब
दहरी फफक-फफक रोती है
घर में जो किलकारी भरती
भार सिसकियों का ढोती है
रस्मों के अंधे सागर में
नहीं सुधा का इक भी लोटा।।
बहता शोणित स्वयं लजाया
निकला हिय से धीरे-धीरे
एक कलिका भँवर फंसी है
काल खड़ा है तीरे-तीरे
शोषण का लेकर डंका
लालच देता रहता झोटा।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
यौतुक=दहेज,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-11-2022) को "माता जी का द्वार" (चर्चा अंक-4615) पर भी होगी।
ReplyDelete--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हृदय से आभार आपका आदरणीय।
Deleteमैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
सादर।
वाह वाह! मार्मिक अभिव्यक्ति 👍👍
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर।
दुल्हा बिकता ढेर दाम में
ReplyDeleteदाम चुकाने वाला खाली
वस्तु उसे ठेंगा मिलती है
खाली होती घर की थाली
बिकने वाला खून चूसता
मानुषता का पूरा टोटा।
यौतुक तो टोटा ही टोटा है
गजब का सृजन
भाव बिम्ब एवं व्यंजना सभी कमाल के...
निशब्द करती लाजवाब कृतिवाह!!!
🙏🙏🙏🙏
आपकी विस्तृत टिप्पणी से रचना को नये आयाम मिले।
Deleteहृदय से आभार आपका सुधा जी।
सस्नेह।
यथार्थ पर गहरा चिंतन । सराहनीय गीत ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका जिज्ञासा जी रचना को प्रोत्साहन मिला।
Deleteसस्नेह।