काची काया मन अथिरा
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हीड़े जग सारा ।
दिखे सिर्फ थावर ये माया,
थिर थिर डोले है जग सारा ।
रोक हींड़ोला मध्य झाँका ,
अंदर ज्यादा ही कंपन था ।
बाहर गति मंथर हो चाहे,
मानस अस्थिर भूड़ोलन था ।
गुप्त छुपी विधना की मनसा,
जान न पाये ये जग सारा ।
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।
जलावर्त में मकर फसी है,
चक्रवात में नभचर पाखी
मानव दोनों बीच घिरा है ,
जब तक जल न भये वो लाखी।
कहाँ देश को गमन सभी का ,
जान न पाये ये जग सारा ।
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
कहाँ देश को गमन सभी का ,
ReplyDeleteजान न पाये ये जग सारा ।
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।।---भावों से परिपूर्ण पंक्तियां
वाह।🌻
ReplyDeleteगुप्त छुपी विधना की मनसा,
ReplyDeleteजान न पाये ये जग सारा ।
काची काया मन भी अथिरा ,
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।। विधि का विधान सर्वथा गुह्यतम रहा है। अलौकिक भावों का वितान बुनती अद्भुत रचना।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (29 -5-21) को "वो सुबह कभी तो आएगी..."(4080) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
जलावर्त में मकर फसी है,
ReplyDeleteचक्रवात में नभचर पाखी
मानव दोनों बीच घिरा है ,
जब तक जल न भये वो लाखी।..वाह अद्भुत,उत्कृष्ट शब्दो का सुन्दर सृजन,पढ़कर अचंभित हूं । सादर शुभकामनाएं ।
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteजलावर्त में मकर फसी है,
ReplyDeleteचक्रवात में नभचर पाखी
मानव दोनों बीच घिरा है ,
जब तक जल न भये वो लाखी।.
वाह!!!!
समसामयिक सत्य का अद्भुत शब्दचित्रण....
कमाल की शब्दव्यंजना।
बहुत ही लाजवाब सृजन।
गुप्त छुपी विधना की मनसा
ReplyDeleteजान न पाये ये जग सारा
काची काया मन भी अथिरा
हींड़ चढा हींड़े जग सारा ।
👌👌वाह! बहुत ही बेहतरीन 👌👌👌
हमारे ब्लॉग पर भी आइएगा आपका स्वागत है🙏🙏
वाह ! सुंदर शब्दों का चयन और अनुपम शैली, जीवन के सत्य को उजागर करतीं पंक्तियाँ !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना !
ReplyDeleteबहुत खूब ,... अलग अंदाज़... अलग शैली में लिखा ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ....
अलग अंदाज में सखि
ReplyDeleteबहुत बहुत बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन दी।
ReplyDeleteसादर