जब आंख खोली सब अजनबी थे
न था कोई परिचित ,सभी तो अजनबी थे
पहले पहल एक अद्भुत हल्की
महक लगी परिचित
मां की महक
अंजान हाथ जब छूते
तन को लिये स्नेह अपार
एक डर एक सिहरन
और गले से निकलती
छोटी छोटी सिसकियां
ढूंढती फिर परिचित हाथ
और ज्यों ही जननी के
हाथ उठा लेते कम्पित
अशक्त नाजुक देह
फिर एक आंतरिक सुरक्षा के भाव
और निरबोध वो काया
फिर हुलसत जाती
लिये अधरों पे एक स्मित रेख।
कुसुम कोठारी
न था कोई परिचित ,सभी तो अजनबी थे
पहले पहल एक अद्भुत हल्की
महक लगी परिचित
मां की महक
अंजान हाथ जब छूते
तन को लिये स्नेह अपार
एक डर एक सिहरन
और गले से निकलती
छोटी छोटी सिसकियां
ढूंढती फिर परिचित हाथ
और ज्यों ही जननी के
हाथ उठा लेते कम्पित
अशक्त नाजुक देह
फिर एक आंतरिक सुरक्षा के भाव
और निरबोध वो काया
फिर हुलसत जाती
लिये अधरों पे एक स्मित रेख।
कुसुम कोठारी
वाह बहुत सुंदर रचना कुसुम जी
ReplyDeleteवो माँ ही है
जो परिचय कराती
इस जग से
हमारे रिश्तों से
अंश मात का हुल्से जब माँ का स्पर्श पा जाये
ReplyDeleteपहचानी सी गंध उसे भयभीत नहीं कर पाये ....
बेहतरीन मीता
बहुत सुंदर मीता रचना को आधार देती सुंदर पंक्तियाँ
Deleteअति सुंदर।
ReplyDeleteएक माँ ही हैं जो हमे सबकुछ देती और सिखाती हैं।
भावपूर्ण रचना
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २० अगस्त २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सादर आभार जी आना तो निश्चित है देर सबेर आती जरूर हूं।
ReplyDeleteसस्नेह ।
माँ की महक, उसका स्पर्श ही है जो बालन तो बाल्लक बड़े के मन में भी सुरक्षा का ... प्रेम का स्त्रोत बहा देता है ...
ReplyDeleteमाँ सा कौन ...
जी सुंदर कथन सार्थक सटीक।
ReplyDeleteसादर आभार।