तीन क्षणिकाएं "मान" "निराशा" "यादें"
. मान
सावन का यूं बरसना
बरस के रुकना
रुक के फिर बरसना
मानो मानिनी का मान
तोड़ने की ठानी है किसी ने।
. निराशा
लहरों का गुनगुनाते हुवे
तट से टकराकर यूं लौट जाना
ज्यौं आज भी
कान्हा के बंसी की स्वर लहरी
सुनने आना गोपियों का
यमुना तट पे
और लौट जाना निराश हो के।
. यादें
हवा का यूं कुछ थाप देना
फिर राह बदलना इठलाके
मानो भुली यादों के घेरे मे
फिर फिर जा बसना
मन की खिड़की खोल ।
कुसुम कोठारी ।
. मान
सावन का यूं बरसना
बरस के रुकना
रुक के फिर बरसना
मानो मानिनी का मान
तोड़ने की ठानी है किसी ने।
. निराशा
लहरों का गुनगुनाते हुवे
तट से टकराकर यूं लौट जाना
ज्यौं आज भी
कान्हा के बंसी की स्वर लहरी
सुनने आना गोपियों का
यमुना तट पे
और लौट जाना निराश हो के।
. यादें
हवा का यूं कुछ थाप देना
फिर राह बदलना इठलाके
मानो भुली यादों के घेरे मे
फिर फिर जा बसना
मन की खिड़की खोल ।
कुसुम कोठारी ।
बेहद खूबसूरत 👌👌
ReplyDeleteसादर आभार सखी आपकी त्वरित प्रतिक्रिया रचना को सदा आधार देती है।
Deleteसुंदर 👌👌👌
ReplyDeleteस्नेह आभार सखी ।
Deleteअप्रतिम👌👌👌👌
ReplyDeleteदी आपको ब्लाॅग पर देख सुखद अनुभूति हुई।
Deleteसादर आभार दी।
अनुपम
ReplyDeleteशानदार
जी बहुत बहुत आभार लोकेश जी ।
Deleteबेहतरीन .वाह्ह दी..प्रायोगिक क्षणिकायें.. नयी परिभाषा गढ़ती हुई हर शब्द का।
ReplyDeleteसही कहा श्वेता ये एक प्रयोगात्मक कविता ही है।
Deleteआपने भाव पहचाने रचना सार्थक हुई।
सस्नेह आभार।
सादर आभार अमित जी।
ReplyDeleteअति उत्तम भाव से परिपूर्ण क्षणिकाएं वाह
ReplyDeleteअभिलाषा जी सस्नेह आभार सखी ।
Deleteआपकी प्रतिक्रिया से मन खुश हुवा ।