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Wednesday, 8 August 2018

मानिनी का मान

तीन क्षणिकाएं "मान" "निराशा" "यादें"

.         मान

सावन का यूं बरसना
बरस के रुकना
रुक के फिर बरसना
मानो मानिनी का मान
तोड़ने  की ठानी है किसी ने।

.           निराशा

लहरों का गुनगुनाते हुवे
तट से टकराकर यूं लौट जाना
ज्यौं आज भी
कान्हा के बंसी की स्वर लहरी
सुनने आना गोपियों का
यमुना तट पे
और लौट जाना निराश हो के।

.              यादें

हवा का यूं कुछ थाप देना
फिर राह बदलना इठलाके
मानो  भुली यादों के घेरे मे
फिर फिर जा बसना
मन की खिड़की खोल ।

      कुसुम कोठारी ।

13 comments:

  1. बेहद खूबसूरत 👌👌

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    1. सादर आभार सखी आपकी त्वरित प्रतिक्रिया रचना को सदा आधार देती है।

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  2. Replies
    1. दी आपको ब्लाॅग पर देख सुखद अनुभूति हुई।
      सादर आभार दी।

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  3. अनुपम
    शानदार

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    1. जी बहुत बहुत आभार लोकेश जी ।

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  4. बेहतरीन .वाह्ह दी..प्रायोगिक क्षणिकायें.. नयी परिभाषा गढ़ती हुई हर शब्द का।

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    1. सही कहा श्वेता ये एक प्रयोगात्मक कविता ही है।
      आपने भाव पहचाने रचना सार्थक हुई।
      सस्नेह आभार।

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  5. सादर आभार अमित जी।

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  6. अति उत्तम भाव से परिपूर्ण क्षणिकाएं वाह

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    1. अभिलाषा जी सस्नेह आभार सखी ।
      आपकी प्रतिक्रिया से मन खुश हुवा ।

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