बरस ऋतु सावन की आई
अल्हड़ शर्माती इठलाती
मेंहदी रचे हाथों में
बरसता सावन भर
मुख पर उड़ाती ,
हाथों में चेहरा छुपाती
हटे हाथ , निकला
ओस में भीगा गुलाब
संग सखियों के जाना
पाँव में थिरकन ,
हृदय है झंकृत
तार तार मन वीणा बाजत
रोम रोम हरियाली छाई
सरस ऋतु सावन की आई
डाल डाल पे झुले सज गये ,
आ सखी पेंग बढ़ाऐं ,
रुनझुन पायलिया
छनक छनक बोले ,
गीत सुनाये
जीया भरमाऐ
नींद चुराऐ
चारों और छटा मनोहर छाई
बरस ऋतु सावन की आई ।
कुसुम कोठरी ।
अल्हड़ शर्माती इठलाती
मेंहदी रचे हाथों में
बरसता सावन भर
मुख पर उड़ाती ,
हाथों में चेहरा छुपाती
हटे हाथ , निकला
ओस में भीगा गुलाब
संग सखियों के जाना
पाँव में थिरकन ,
हृदय है झंकृत
तार तार मन वीणा बाजत
रोम रोम हरियाली छाई
सरस ऋतु सावन की आई
डाल डाल पे झुले सज गये ,
आ सखी पेंग बढ़ाऐं ,
रुनझुन पायलिया
छनक छनक बोले ,
गीत सुनाये
जीया भरमाऐ
नींद चुराऐ
चारों और छटा मनोहर छाई
बरस ऋतु सावन की आई ।
कुसुम कोठरी ।
वाह बेहतरीन रचना 👌👌
ReplyDeleteसरस ऋतु सावन की आई
डाल डाल पे झुले सज गये ,
आ सखी पेंग बढ़ाऐं ,
आभार सखी स्नेह सिक्त ।
Deleteसावन का इतना मधुर विश्लेषण ... सरस, मन को नेह के सागर से नहलाती ये बहार किसी के मन को भी भिगो सकती है ... सुन्दर रचना ....
ReplyDeleteमनभावन व्याख्या के साथ सुंदर प्रतिक्रिया सादर आभार।
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