Friday, 3 August 2018

बरस ऋतु सावन की आई

बरस ऋतु सावन की आई

अल्हड़ शर्माती इठलाती
    मेंहदी रचे हाथों में
    बरसता सावन भर
      मुख पर उड़ाती ,
  हाथों में चेहरा छुपाती
     हटे हाथ , निकला
   ओस में भीगा गुलाब
   संग सखियों  के जाना
       पाँव में थिरकन ,
        हृदय है झंकृत
तार तार मन वीणा बाजत
  रोम रोम हरियाली छाई
सरस ऋतु सावन की आई
डाल डाल पे झुले सज गये ,
     आ सखी पेंग बढ़ाऐं ,
       रुनझुन पायलिया
       छनक छनक बोले ,
            गीत सुनाये
          जीया भरमाऐ
             नींद चुराऐ
चारों और छटा मनोहर छाई
बरस ऋतु सावन की आई ।
         कुसुम कोठरी ।

4 comments:

  1. वाह बेहतरीन रचना 👌👌
    सरस ऋतु सावन की आई
    डाल डाल पे झुले सज गये ,
    आ सखी पेंग बढ़ाऐं ,

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    1. आभार सखी स्नेह सिक्त ।

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  2. सावन का इतना मधुर विश्लेषण ... सरस, मन को नेह के सागर से नहलाती ये बहार किसी के मन को भी भिगो सकती है ... सुन्दर रचना ....

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    1. मनभावन व्याख्या के साथ सुंदर प्रतिक्रिया सादर आभार।

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