Friday, 4 March 2022

ऩदारद आदमियत '


 ऩदारद आदमियत


चारों तरफ़ कैसा तूफ़ान है

हर दीपक दम तोड रहा है


इन्सानों की भीड जितनी बढी है 

आदमियत उतनी ही ऩदारद है


हाथों में तीर लिये हर शख़्स है

हर नज़र नाख़ून लिये बैठी है


स्वार्थ का खेल हर कोई खेल रहा है

मासूमियत लाचार दम तोड रही है


शांति के दूत कहीं दिखते नही है

हर और शिकारी बाज़ उड रहे है


कितने हिस्सों में बंट गया मानव है

अमन औ चैन मुंह छुपा के रो रहे है।


             कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

11 comments:

  1. बहुत ही मर्मांतक सत्य को दर्शाती रचना प्रिय कुसुम बहन।इंसानियत स्वार्थी तत्वों के बीच फंसी ज़ार-ज़ार रो रही है।ईश्वर ही मालिक है अब दुनिया का।शान्ति के दूत स्वपन मात्र बनकर रह गये।

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    1. हृदय से आभार आपका रेणु बहन आपकी विस्तृत सारगर्भित टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
      सही कहा आपने इंसानियत स्वार्थी तत्वों के बीच फंसी ज़ार-ज़ार रो रही है।आपकी प्रतिपंक्तियाँ रचना के सामानांतर भाव को और भी स्पष्ट कर रही है।
      सस्नेह आभार आपका।

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  2. शांति के दूत कहीं दिखते नही है
    हर और शिकारी बाज़ उड रहे है
    सही कहा अब ऐसा लगता है ये शिकारी बाज बची खुची मानवता को भी नोंच नोंच कर समाप्त कर जायेंगे
    बहुत ही मर्मस्पर्शी सृजन सामयिकता पर।

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    1. जी सुधा जी समय के साथ हर काल परिवर्तन में बहुत कुछ बदलता रहा है पर इन दस सालों में तो बदलाव कल्पनातीत हो रहा हैं और वो भी अधोगामी ।
      आपकी सार्थक प्रतिक्रिया से रचना को नव उर्जा मिली।
      सस्नेह आभार आपका।

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  3. बहुत बहुत सुन्दर रचना

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  4. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१२ -०३ -२०२२ ) को
    'भरी दोपहरी में नंगे पाँवों तपती रेत...'(चर्चा अंक-४३६७)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. जी हृदय से आभार आपका, चर्चा पर रचना को देखना सदा सुखद अहसास देता है।
      सादर सस्नेह।

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  5. सुन्दर सृजन।

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    1. हृदय से आभार आपका उत्साहवर्धन हेतु।
      सादर।

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  6. शांति के दूत कहीं दिखते नही है

    हर और शिकारी बाज़ उड रहे है
    बेहद सुंदर भावपूर्ण

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    1. बहुत बहुत आभार आपका भारती जी।
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      सस्नेह।

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