Thursday, 31 March 2022

अरविंद सवैया में प्रकृति के कुछ रूप


 अरविंद सवैया में प्रकृति के कुछ रूप।


१)धरा के अँकवार

मधुमास लगा अब फूल खिले, सब ओर चली मृदु गंध बयार।

हर डाल सजे नवपल्लव जो,पहने वन देव सुशोभित हार।

अँकवार लिए तृण दूब कुशा, धरणी पहने चुनरी कचनार।।

मन है कुछ चंचल देख रहा, निखरी वसुधा बहती मधुधार।।


२)शंख रव

कलियाँ महकी-महकी खिलती, अब वास सुगंधित है चहुँ ओर।

जब स्नान करे किरणें सर में, लगती निखरी नव सुंदर भोर।

बहता रव शंख दिशा दस में, रतनार हुआ नभ का हर कोर।

मुरली बजती जब मोहन की, खुश होकर नाच उठे मन मोर।।


३) साँझ

ढलता  रवि साँझ हुई अब तो, किरणें पसरी चढ़ अंबर छोर।

हर कोण लगे भर माँग रहा, नव दुल्हन ज्यों मन भाव विभोर, 

खग लौट रहे निज नीड़ दिशा, अँधियार रहा कर भूमि अखोर।

तन क्लांत चले निज गेह सभी, श्रम दूर करे अब श्रांन्ति अथोर।।


४)सुधांशु

मन रे अब धीर धरो कुछ तो, तज चंचलता बन शांत सुधांशु।

तपती जगती तपनांशु दहे, हँसती निशि पाकर कांत सितांशु।

जब क्लांत हुआ तन पिंजर तो, नव जीवन सा भरता शिशिरांशु

घटता बढ़ता निज गौरव से,शिव भाल सदा भय क्रांत हिमांशु।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 28 March 2022

विपन्न


 विपन्न।


भूख है सुरसा मही पर 

व्याल ज्यों परिवेश में

दह रहा सिसकी समेटे

जीव कैसे क्लेश में।


नित्य बढ़ती जा रही है

द्वेष की ही आँधियाँ

हर दिशा बिखरी पड़ी हैं

मौत की ये व्याधियाँ

दैत्य भी अब तो छुपे हैं

नाम के अवधेश में।।


चाँद में रोटी झलकती

है रसिक सी व्यंजना

काव्य कब भरता उदर है

पीर बस अतिरंजना

दीन कब तक यूँ निहारे

रोटियाँ राकेश में।।


पेट को देने निवाला

उम्र बीते हर घड़ी

रोग का संताप गहरा

दुर्दिनों की है झड़ी

रोटियों की सिसकियों का

आह क्रंदन देश में।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 27 March 2022

स्वर सुर सरगम


 स्वर सुर सरगम 


सरगम छेड़ो ताल से, मधुर गूँज हो आज।

सुर संगम के साथ ही,गीत लगे सरताज।।


धुनकी धुन धुन कर रही, तान बजाता कौन।

सरगम से मन मोहती, साज हुए सब मौन।।


मन में सरगम जब बजे, मुख पर लाली लाज।

पाँवों में थिरकन मचे, रोम बजे हैं साज।।


राग नहीं सरगम बिना, लगे अधूरी जीत।

मधुर रागिनी जब बजे, कोमल मुखरित गीत ।।


सात सुरों का नेह ही,जग में भरता प्रीत।

खुशियों से मन झूमता, होठ सजाते गीत।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 24 March 2022

कविता को मुक्ति


 कविता को मुक्ति


हाँ ये मन पुकारता है

भाव मेरे चिर तरुण हो

हो स्वछंद पाखी सरिखे

ज्यों गगन विचरे अरुण हो।


न बांधों इनको बेड़ियों में

वात सा आजाद छोड़ो

श्वास लेने दो सहज सी

खिड़कियों के पाट मोड़ो

लेखनी निर्बाध दौड़े

सिंधु उर्मिल सा वरुण हो।।


बंधनों में भाव मेरे

प्राण से निस्तेज होते

एक बाना झूठ पहने

शब्द आँसू से भिगोते

बिलखते हैं कुलबुला कर

और रोते हैं करुण हो।।


भावना में छल नहीं हो

तो कवित फिर क्यों कलंकित

जब फफोले फूटते हो

लेखनी से घाव अंकित

आज उड़ना चाहती है

रोध सारे ही धरुण हो।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 21 March 2022

कवि जुलाहा


 अंतरराष्ट्रीय कविता दिवस पर सभी कवि कवियत्री वृंद को समर्पित।🌷


कवि जुलाहा!


धीर जुलाहा बन रे कवि तू

बुनदे कविता जग में न्यारी ।

ताने बाने गूँथ रखे जो

धागा-धागा सूत किनारी।


कोरे पन्ने रंग विविध हों 

मोहक शब्दों की मणि माला

अंतर तक आलोक जगा दें

खोले बोध ज्ञान का ताला

चतुर नीलगर वसन अनोखे

चमक रही है  धारी-धारी।।


नाप तोल से शब्द सजे तो

छंद मृदंग बजे भीने से

तार -तार सन्मति से जोड़े

मंजुल वसन सजे झीने से

भाव हमारे अनुयायी के

शिल्प बने पहचान हमारी।।


आखर-आखर से जुड़ते हैं 

भाव तरंगी बहने लगती

शब्द शक्तियाँ मुखरित हो तो

छुपी कहानी कहने लगती

मृदुल लेखनी खिलकर उभरे

बहती है गीतों की झारी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 18 March 2022

होली प्रीत की कोली


 होली प्रीत की कोली


रंग भर घर से चली है

मग्न हो कर आज टोली

ढ़ाक खिलके मदमदाए

शीश वृक्षों के रँगोली।


केसरी सी हर दिशा है

फाग खेले हैं हवाएँ

व्योम से पिचकारियाँ भर

कौन रंगीला बहाएँ

श्वेत चुनरी पर ठसकती

इंद्र धनुषी सात मोली।।


छाब भरकर फूल लाया

मौसमी ऋतुराज माली

लोल लतिका झूम नाचे

अधखिले से अंगपाली

फाग का अनुराग जागा

स्वर्ण वर्णी ये निबोली।।


नेह का गागर छलकता

धूम है सब ओर भारी

हैं उमंगित बाल बाला

शीत है मन की अँगारी

 फागुनी शृंगार महके

ये अबीरी सी ठिठोली।


गूँथ लो अनुराग रेशम

झूलता उपधान मंजुल

प्रेम की गंगा निकोरी

झुक भरो बस स्नेह अंजुल

आज होली कह रही है

प्रीति की तू बाँध कोली।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 15 March 2022

पर्व होली


 पर्व होली


नेह की उलझी डगर में

हो सजग वो क्यों बहकता

जो रखें प्रतिमान ऊँचा

भाल उनका ही चमकता।


होलिका मद आप डूबी

शक्ति भ्रष्टा मोह में थी

भूल कर सब दंभ में वो

मूढ़ता की खोह में थी

जल मरी अज्ञान तम में

हो अमर फिर ध्रुव गमकता।


तथ्य कितने ही छुपाये

सत्य की ही जीत रहती

लुप्त सी बातें नहीं ये

राग बन खुशियाँ छलकती

इक महोत्सव रूप धरके

पर्व होली यूँ दमकता।।


भाव में सद्भावना हो

प्रेम का अनुराग न्यारा

भ्रात भावों में छुपा है

मेल का दृष्टाँत प्यारा

 घोल केसर सिंधु नाचे

रंग का उत्सव  महकता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 12 March 2022

पाटलों (गुलाबों) की नियति


 पाटलों की नियति 


स्थलकमल पर झिलमिलाई

ओस किरणों से लड़ी

पुष्प पातों सो रही थी

अब विदाई की घड़ी।


रूप भी है गंध मोहक

और मुख मृदु हास है

लिप्त बैठे सेज कंटक

भृंग डोले पास है

क्षण पलों की देह कोमल

लहलहा काया झड़ी।।


शाख फुनगी मुस्कुराया 

इक सजीला फूल जब

तोड़ने को हाथ बहका

चुभ गया लो शूल तब

पाटलों की पंखुड़ी फिर

खिलखिला कर हँस पड़ी।


कंट हैं रक्षक हमारे

है निरापद साथ भी

हाँ बिखरना दो दिनों में

कार्य या अकराथ भी

देव भालों पर चढ़े या

बिंध कर बनते लड़ी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 8 March 2022

उन्मुक्त नारी।


 अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर नारियों को समर्पित।


उन्मुक्त नारी


हाथ बढ़ाकर व्योम थाम लूँ 

आकांक्षाएं उड़ती रहतीं

एक बार ऊँचाई छूकर 

शून्य मूल्य पर गाथा रचतीं ।। 


बंधन काया पर हो सकते 

बाँधे मन को कौन कभी 

चाहे डोर टूट कर बिखरे 

खण्डित मण्डित हो स्वप्न सभी 

किस अज्ञात खूँटे टँगे

थाप हवाओं के भी सहती ।।


और हौसले के हय चढ़कर 

आँचल में तारे भर लाती 

अपनी राहें स्वयं सँवारूँ

गीत विजय के मधुर सुनाती 

मोड़ हवा का रुख निज बल से 

संग उसी के दृढ़ हो बहती।।


युग बदले मेरी सत्ता के 

नव स्थापित सब करना होगा 

गार्गी और अनुसुया सा दम 

हर नारी को भरना होगा 

मोहक आभा तिमिर चीर कर 

बंद सभी छिद्रों से झरती।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 6 March 2022

उषा काल


 उषा काल


द्युति वर्तुल छलक रहे है

बरस रही कंचन धारा

नीला नभ रतनार चुनर

दमक रहा है विश्व सारा।


उर्मियाँ बाहें पसारे

श्याम मुख उबटन मले ज्यों

फिर निखर कर पीत वर्णी

धैर्य से दुल्हन चले ज्यों

सिंदुरी आभा अलोकित

डूबता सा भोर तारा।।


खोल झरोखा पूरब में

तेजोमय ये वीर कौन

अगन पालकी में चढ़कर

अगवाना ये धीर कौन

अंग पावक तेज दहके

बाँटता है जग उजारा।।


स्वर्ण बहता जा रहा है

नीलगर ने रंग छोड़े 

केसरी सी ओढ़नी में

सुनहरी से तार जोड़े

झिलमिलाता सिंधु पानी

रश्मियों ने है सवारा।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 4 March 2022

ऩदारद आदमियत '


 ऩदारद आदमियत


चारों तरफ़ कैसा तूफ़ान है

हर दीपक दम तोड रहा है


इन्सानों की भीड जितनी बढी है 

आदमियत उतनी ही ऩदारद है


हाथों में तीर लिये हर शख़्स है

हर नज़र नाख़ून लिये बैठी है


स्वार्थ का खेल हर कोई खेल रहा है

मासूमियत लाचार दम तोड रही है


शांति के दूत कहीं दिखते नही है

हर और शिकारी बाज़ उड रहे है


कितने हिस्सों में बंट गया मानव है

अमन औ चैन मुंह छुपा के रो रहे है।


             कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 1 March 2022

नव रसों का मेह कविता


 नव रसों का मेह कविता


थाह गहरे सिंधु जैसी

उर्मिया मन में मचलती

शब्द के भंडार खोले

लेखनी मोती उगलती।।


लिख रहे कवि लेख अनुपम

भाव की रस धार मीठी

गुड़ बने गन्ना अनूठा

चाशनी चढ़ती अँगीठी

चाल ग़ज़लों की भुलाकर

आज नव कविता खनकती।


स्रोत की फूहार इसमें

स्वर्ग का आनंद भरते

सूर्य किरणों से मिले तो

इंद्रधनुषी स्वप्न झरते

सोम रस सी शांत स्निगधा

तामरस सी है बहकती।।


वीर या श्रृंगार करुणा

नव रसो का मेह छलका

रूप कितने ही हैं इसके

ताल में ज्यों चाँद झलका

कंटकों सी ले चुभन तो

रात रानी बन लहकती।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'