पत्थरों के शहर
ये क्या कि पत्थरों के शहर में
शीशे का आशियाना ढूंढते हो!
आदमियत का पता तक नहीं
ग़ज़ब करते हो इन्सान ढूंढ़ते हो !
यहाँ पता नही किसी नियत का
ये क्या कि आप ईमान ढूंढते हो !
आईनों में भी दग़ा भर गया यहां
अब क्या सही पहचान ढूंढते हो !
घरौदें रेत के बिखरने ही तो थे,
तूफ़़ानों पर क्यूं इल्ज़ाम ढूंढते हो !
जहां बालपन भी बुड्ढा हो गया
वहां मासूमियत की पनाह ढूंढ़ते हो!
भगवान अब महलों में सज के रह गये
क्यों गलियों में उन्हें सरेआम ढूंढ़ते हो।
कुसुम कोठारी।
ये क्या कि पत्थरों के शहर में
शीशे का आशियाना ढूंढते हो!
आदमियत का पता तक नहीं
ग़ज़ब करते हो इन्सान ढूंढ़ते हो !
यहाँ पता नही किसी नियत का
ये क्या कि आप ईमान ढूंढते हो !
आईनों में भी दग़ा भर गया यहां
अब क्या सही पहचान ढूंढते हो !
घरौदें रेत के बिखरने ही तो थे,
तूफ़़ानों पर क्यूं इल्ज़ाम ढूंढते हो !
जहां बालपन भी बुड्ढा हो गया
वहां मासूमियत की पनाह ढूंढ़ते हो!
भगवान अब महलों में सज के रह गये
क्यों गलियों में उन्हें सरेआम ढूंढ़ते हो।
कुसुम कोठारी।
अनेक भावों से सराबोर है आपकी यह रचना कुसुम दी। जब हर शब्द ही " उपदेश" हो, तो उसकी व्याख्या कठिन है। बस यहाँ तो मौन धारण कर आत्मचिंतन ही उचित जान पड़ता है।
ReplyDeleteShashi Gupta Shashi बहुत सा आभार भाई ,आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से सदा रचना नये आयाम स्थापित करती है,और मन को सुकून मिलता है।
Deleteसस्नेह।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ११ अक्टूबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार आपका पांच लिंको में रचना शामिल करने के लिए,ये मेरे लिए सदा उत्साह वर्धक होता है।
Deleteसस्नेह।
बेहतरीन सृजन कुसुम जी !
ReplyDeleteसस्नेह आभार मीना जी आपका स्नेह सदा वांछित है ,और उर्जा संचार करता है।
Deleteसस्नेह
सच है पत्थरों के शहर में सिर्फ माथा ही फूटता है ...
ReplyDeleteयथार्थ से परिचय करवाती रचना ... लाजवाब ...
बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय नासवा जी आपकी प्रतिक्रिया सदा व्याख्यात्मक और उत्साह वर्धक होती है।
Deleteसादर।
बहुत उम्दा
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका लोकेश जी ।
Deleteआईनों में भी दग़ा भर गया यहां
ReplyDeleteअब क्या सही पहचान ढूंढते हो !
वाह ! क्या बात कही है।
जी आदरणीय बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए।
ब्लाग पर आपका हृदय तल से स्वागत है।
सादर।
बेहतरीन रचना सखी 👌
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी आपकी प्रतिक्रिया से उत्साह वर्धन हुआ।
Deleteजहां बालपन भी बुड्ढा हो गया
ReplyDeleteवहां मासूमियत की पनाह ढूंढ़ते हो
बहुत खूब कुसुम जी ,हकीकत वया करती एक एक शेर ,सादर नमन
बहुत बहुत आभार कामिनी जी आपकी प्रतिक्रिया सदा रचना को प्रवाह देती है और मुझे उर्जा।
Deleteसस्नेह।
हर एक मंदिर किसी महल से कम नहीं।
ReplyDeleteजब पुजारी अपनी बेटी के ब्याह में 11 किलो सोना दहेज में देता है तब ये बात और भी पुख्ता हो जाती है।
मासूमियत तो खो गयी पहले tv की वजह से फिर इस मोबाइल की वजह से।
बालपन भी नदारद है खानपान की वजह से।
सटीक रचना।
नई पोस्ट पर आपका स्वागत है 👉 ख़ुदा से आगे
सटीक चिंतन, आज का खाका खिंचती सार्थक प्रतिक्रिया।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय रोहितास जी ।
सादर।
बहुत बहुत आभार आपका, चर्चा मंच पर जरूर उपस्थिति रहेगी ।
ReplyDeleteसस्नेह।
लाजवाब रचना 👌👌👌
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteआईनों में भी दग़ा भर गया यहां
ReplyDeleteअब क्या सही पहचान ढूंढते हो !
..............क्या बात
घरौदें रेत के बिखरने ही तो थे,
ReplyDeleteतूफ़़ानों पर क्यूं इल्ज़ाम ढूंढते हो !
वाह!!!!
बहुत ही सुन्दर सार्थक एवं लाजवाब रचना...
जहां बालपन भी बुड्ढा हो गया
ReplyDeleteवहां मासूमियत की पनाह ढूंढ़ते हो!
बहुत ही भावपूर्ण और सार्थक रचना |
प्रिय कुसुम बहन , आपकी प्रस्तुति पर देर से आ पायी और बहुत अरसे से आपके और कई अन्य ब्लॉग पर ना सकने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ | आशा है शिग्र ही सब नियमित हो जाएगा | चर्चा मंच पर पर एक दिन आपके नाम मुबारक हो |सस्नेह शुभकामनाएं|