पुतला नही प्रवृति का दहन
मन का रावण
आज भी खड़ा है
सर तान कर
अंगद के पाँव जैसा,
सदियां बीत गई
रावण जलाते
पुतला भस्म होता रहा हर बार
रावण वहीं खड़ा रहा
अपने दंभ के साथ
सीना ताने
क्या जलाना है ?
पुतला या प्रवृति
बस लकीर पीट रहें हैं
बैठे बैठे हम
काश साल में
एकबार ही सही ,
मन की आसुरी
सोच बदलते
राम न बनते ,
रावण से नाता तोड़ते
तो सचमुच दशहरा
सार्थक होता ।
कुसुम कोठारी ।
मन का रावण
आज भी खड़ा है
सर तान कर
अंगद के पाँव जैसा,
सदियां बीत गई
रावण जलाते
पुतला भस्म होता रहा हर बार
रावण वहीं खड़ा रहा
अपने दंभ के साथ
सीना ताने
क्या जलाना है ?
पुतला या प्रवृति
बस लकीर पीट रहें हैं
बैठे बैठे हम
काश साल में
एकबार ही सही ,
मन की आसुरी
सोच बदलते
राम न बनते ,
रावण से नाता तोड़ते
तो सचमुच दशहरा
सार्थक होता ।
कुसुम कोठारी ।
अपनी बुरी प्रवृत्ति का दहन करने में न जाने क्यों इतनी लज्जा आती है कि दूसरे का पुतला वह दहन कर ताली बजा रहा है।
ReplyDeleteउद्देश्यपरक रचना,प्रणाम दी।
बहुत बहुत आभार आपका भाई।
Deleteये भी सही है कि यहां पुतले ही जलाएं जायेगें विचार नहीं ।
सही है ... हर साल रावण जलाते हैं पर वो हँसता है सब के ऊपर ... क्योंकि उसकी प्रिवृति नहीं जलती ... बहुत प्रभावी ... विजयदशमी की बहुत शुभकामनायें ...
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteरचनागत भावों को समर्थन देती प्रतिक्रिया से उत्साह वर्धन हुआ।
सादर।
बहुत ही सुंदर सीख देती रचना ,आप को भी विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteविजयादशमी की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।
Deleteबहुत सा आभार कामिनी जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना को प्रवाह मिला।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 08 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका मुखरित मौन में रचना को शामिल करने के लिए। जरूर आना ही है ।
Deleteसादर।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना 9 अक्टूबर 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जी बहुत बहुत आभार पम्मी जी पांच लिंक में शामिल होना सदैव मुझे हर्षित करता है।
Deleteसस्नेह।
मन का रावण
ReplyDeleteआज भी खड़ा है
सर तान कर....
बेहद ही प्रेरक इस रचना हेतु साधुवाद आदरणीया कुसुम जी। विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं ।
बहुत बहुत आभार आपका पुरुषोत्तम जी आपकी सार्थक प्रतिक्रिया से रचना को प्रवाह और सार्थकता मिली।
Deleteसादर
मन का रावण
ReplyDeleteआज भी खड़ा है
सर तान कर
अंगद के पाँव जैसा,
सटीक चिन्तन भरी प्रेरक रचना ।
मन की सोंच बदले बिना पुतला दहन से सचमुच कुछ नहीं होने वाला है।
ReplyDeleteसुंदर सीख देती रचना
ReplyDeleteशहर से बाहर होने की वजह से .... काफी दिनों तक नहीं आ पाया ....माफ़ी चाहता हूँ..