Wednesday, 9 October 2019

पत्थरों के शहर

पत्थरों के शहर

ये क्या कि पत्थरों के शहर में
शीशे का आशियाना ढूंढते हो!

आदमियत  का पता  तक  नहीं
ग़ज़ब करते हो इन्सान ढूंढ़ते हो !

यहाँ पता नही किसी नियत का
ये क्या कि आप ईमान ढूंढते हो !

आईनों में भी दग़ा  भर गया यहां
अब क्या सही पहचान  ढूंढते हो !

घरौदें  रेत के बिखरने ही तो  थे,
तूफ़़ानों पर क्यूं इल्ज़ाम ढूंढते हो !

जहां  बालपन  भी  बुड्ढा  हो गया
वहां मासूमियत की पनाह ढूंढ़ते हो!

भगवान अब महलों में सज के रह गये
क्यों गलियों में उन्हें सरेआम ढूंढ़ते हो।

                कुसुम कोठारी।

24 comments:

  1. अनेक भावों से सराबोर है आपकी यह रचना कुसुम दी। जब हर शब्द ही " उपदेश" हो, तो उसकी व्याख्या कठिन है। बस यहाँ तो मौन धारण कर आत्मचिंतन ही उचित जान पड़ता है।

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    1. Shashi Gupta Shashi बहुत सा आभार भाई ,आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से सदा रचना नये आयाम स्थापित करती है,और मन को सुकून मिलता है।
      सस्नेह।

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ११ अक्टूबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका पांच लिंको में रचना शामिल करने के लिए,ये मेरे लिए सदा उत्साह वर्धक होता है।
      सस्नेह।

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  3. बेहतरीन सृजन कुसुम जी !

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    1. सस्नेह आभार मीना जी आपका स्नेह सदा वांछित है ,और उर्जा संचार करता है।
      सस्नेह

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  4. सच है पत्थरों के शहर में सिर्फ माथा ही फूटता है ...
    यथार्थ से परिचय करवाती रचना ... लाजवाब ...

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय नासवा जी आपकी प्रतिक्रिया सदा व्याख्यात्मक और उत्साह वर्धक होती है।
      सादर।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका लोकेश जी ।

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  6. आईनों में भी दग़ा भर गया यहां
    अब क्या सही पहचान ढूंढते हो !

    वाह ! क्या बात कही है।

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    1. जी आदरणीय बहुत बहुत आभार आपका।
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए।
      ब्लाग पर आपका हृदय तल से स्वागत है।
      सादर।

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  7. बेहतरीन रचना सखी 👌

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    1. बहुत बहुत आभार सखी आपकी प्रतिक्रिया से उत्साह वर्धन हुआ।

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  8. जहां बालपन भी बुड्ढा हो गया
    वहां मासूमियत की पनाह ढूंढ़ते हो

    बहुत खूब कुसुम जी ,हकीकत वया करती एक एक शेर ,सादर नमन

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    1. बहुत बहुत आभार कामिनी जी आपकी प्रतिक्रिया सदा रचना को प्रवाह देती है और मुझे उर्जा।
      सस्नेह।

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  9. हर एक मंदिर किसी महल से कम नहीं।
    जब पुजारी अपनी बेटी के ब्याह में 11 किलो सोना दहेज में देता है तब ये बात और भी पुख्ता हो जाती है।
    मासूमियत तो खो गयी पहले tv की वजह से फिर इस मोबाइल की वजह से।
    बालपन भी नदारद है खानपान की वजह से।
    सटीक रचना।

    नई पोस्ट पर आपका स्वागत है 👉 ख़ुदा से आगे 

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    1. सटीक चिंतन, आज का खाका खिंचती सार्थक प्रतिक्रिया।
      बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय रोहितास जी ।
      सादर।

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  10. बहुत बहुत आभार आपका, चर्चा मंच पर जरूर उपस्थिति रहेगी ।
    सस्नेह।

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  11. लाजवाब रचना 👌👌👌

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  12. बहुत सुंदर रचना।

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  13. आईनों में भी दग़ा भर गया यहां
    अब क्या सही पहचान ढूंढते हो !

    ..............क्या बात

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  14. घरौदें रेत के बिखरने ही तो थे,
    तूफ़़ानों पर क्यूं इल्ज़ाम ढूंढते हो !
    वाह!!!!
    बहुत ही सुन्दर सार्थक एवं लाजवाब रचना...

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  15. जहां बालपन भी बुड्ढा हो गया
    वहां मासूमियत की पनाह ढूंढ़ते हो!
    बहुत ही भावपूर्ण और सार्थक रचना |
    प्रिय कुसुम बहन , आपकी प्रस्तुति पर देर से आ पायी और बहुत अरसे से आपके और कई अन्य ब्लॉग पर ना सकने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ | आशा है शिग्र ही सब नियमित हो जाएगा | चर्चा मंच पर पर एक दिन आपके नाम मुबारक हो |सस्नेह शुभकामनाएं|

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