फुरसत-ए-ज़िंदगी
फुरसत-ए-ज़िंदगी कभी तो हो रू-ब-रू।
ढल चला आँचल अब्र का भी हो सुर्ख़रू ।
पहरे बिठाये थे आसमाँ पर आफ़ताब ने
वो ले गया इश्राक़ आलम हुवा बे-आबरू ।
चलो चाँद पर कुछ क़समे उठा देखा जाए।
रौशन रहा माहताब-ए-अल शब-ए-आबरू।
इश्राक़=चमक
अल =कला
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
चलो चाँद पर कुछ क़समे उठा देखा जाए।
ReplyDeleteरौशन रहा माहताब-ए-अल शब-ए-आबरू।
सुन्दर गज़ल मैम....
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत बढ़िया
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