Tuesday, 12 January 2021

रू-ब-रू


 फुरसत-ए-ज़िंदगी 


फुरसत-ए-ज़िंदगी कभी तो हो रू-ब-रू।

ढल चला आँचल अब्र का भी हो  सुर्ख़रू । 


पहरे बिठाये थे आसमाँ पर आफ़ताब ने

वो ले  गया इश्राक़ आलम हुवा बे-आबरू ।


चलो चाँद पर कुछ क़समे उठा देखा जाए।

रौशन रहा माहताब-ए-अल शब-ए-आबरू।


इश्राक़=चमक

अल =कला


               कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

4 comments:

  1. चलो चाँद पर कुछ क़समे उठा देखा जाए।
    रौशन रहा माहताब-ए-अल शब-ए-आबरू।

    सुन्दर गज़ल मैम....

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  2. बहुत सुंदर रचना

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