Saturday, 9 January 2021

साँझ ढ़ले


 विज्ञात छंद आधारित नव गीत 


साँझ ढ़ली


साँझ ढ़ली विभा छाई 

चँद्र रचे नयी क्रीड़ा ।

मादक सा उजाला है

अंतर चातकी पीड़ा।।


आँचल में खिला तारा

स्वप्न झड़े कड़ी टूटी।

आस रिती रही सारी 

प्रीत उसी घड़ी फूटी।

काल बिता फिरे खाली

हाथ उठा लिया बीड़ा।।


जीवन नीर का तोड़ा

बूंद रसा गिरी सारी

रिक्त हुआ झुठी माया

बीत गयी रही खारी

अंतर भीगती काया 

राग वृतांत का छेडा।।


रात नमी सिली भीगी

दारुण भाव सी बीती।

वांछित था अभी आना

अद्भुत काल की रीती।

आज न घाव दे जाना

लाख अभी रखी व्रीड़ा।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

8 comments:

  1. अद्भुत... विज्ञात छंद की जानकारी मुझे नहीं थी...

    बहुत अच्छी रचना, साधुवाद एवं
    हार्दिक शुभकामनाएं
    🙏🌺🙏

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  2. बहुत सुंदर रचना, कुसुम दी।

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  3. बहुत बहुत सुन्दर

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  4. आभा बिखेरती, मन मोहती सुन्दर कृति..

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  5. निशा की समग्र व्यथा-कथा.

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  6. बहुत सुन्दर।
    विश्व हिन्दी दिवस की बधाई हो।

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