एक बूंद का आत्म बोध
पयोधर से निलंबित हुई
अच्युता का भान एक क्षण
फिर वो बूंद मगन अपने में चली
सागर में गिरी
पर भटकती रही अकेली
उसे सागर नही
अपने अस्तित्व की चाह थी
महावीर और बुद्ध की तरह
वो चली निरन्तर
वीतरागी सी
राह में रोका एक सीप ने
उस के अंदर झिलमिलाता
एक मोती बोला
एकाकी हो कितनी म्लान हो
कुछ देर और
बादलों के आलंबन में रहती
मेरी तरह स्वाती नक्षत्र में
बरसती तो देखो
मोती बन जाती
बूंद ठिठकी
फिर लूँ आलंबन सीप का !!
नही मुझे अपना अस्तित्व चाहिये
सिद्ध हो विलय हो जाऊँ एक तेज में ।
कहा उसने....
बूँद हूँ तो क्या
खुद अपनी पहचान हूँ
मिल गई गर समुद्र में क्या रह जाऊँगी
कभी मिल मिल बूँद ही बना सागर
अब सागर ही सागर है बूंद खो गई
सीप का मोती बन कैद ही पाऊंगी
निकल भी आई बाहर तो
किसी गहने मे गुंथ जाऊंगी
मैं बूँद हूँ स्वयं अपना अस्तित्व
अपनी पहचान बनाऊँगी ।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बूँद का अस्तित्व इंगित करती सुन्दर रचना।
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(३०-०१-२०२१) को 'कुहरा छँटने ही वाला है'(चर्चा अंक-३९६२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteउसे सागर नही
ReplyDeleteअपने अस्तित्व की चाह थी
महावीर और बुद्ध की तरह..
वाह!! बहुत खूब !!अति सुन्दर!!
दिव्य भावपूर्ण रचना।
ReplyDeleteअति सुंदर सृजन दी।
ReplyDeleteशब्द चयन और भाव बेहद उत्कृष्ट है।
सादर।
मै बूंद हूं..
ReplyDeleteबूंद ही सही..
अस्तित्व की खोज में हूं मै..
लेना आश्रय किसी सागर का नहीं..
बहुत सुंदर रचना..