कहीं उजली, कहीं स्याह अंधेरों की दुनिया ,
कहीं आँचल छोटा, कहीं मुफलिसी की दुनिया।
कहीं दामन में चाँद और सितारे भरे हैं ,
कहीं ज़िन्दगी बदरंग धुँआ-धुआँ ढ़ल रही है ।
कहीं हैं लगे हर ओर रौनक़ों के रंगीन मेले ,
कहीं मय्यसर नही दिन को भी उजाले ।
कहीं ज़िन्दगी महकती खिलखिलाती है
कहीं टूटे ख्वाबों की चुभती किरचियाँ है ।
कहीं कोई चैन और सुकून से सो रहा है,
कहीं कोई नींद से बिछुड़ कर रो रहा है।
कहीं खनकते सिक्कों की खन-खन है,
कहीं कोई अपनी ही मैयत को ढो रहा है ।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
जब से इंसान सभ्य हुआ है शायद तभी से यह विडंबना भी रही है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह !लाजवाब दी 👌
ReplyDeleteलाजवाब👌👌👌👌
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 11 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन रचना सखी
ReplyDeleteजीवन की इन विसंगतियों के साथ ही जीना होता है ...
ReplyDeleteइतना आसान नहीं होता जीना ... गहर बात .... बाखूबी कही बात ...