Sunday, 9 August 2020

विसंगतियाँ

विसंगतियाँ


कहीं उजली,  कहीं स्याह अंधेरों की दुनिया ,

कहीं आँचल छोटा, कहीं मुफलिसी की दुनिया। 


कहीं  दामन में चाँद और  सितारे भरे हैं ,

कहीं ज़िन्दगी बदरंग धुँआ-धुआँ ढ़ल रही है ।


कहीं हैं लगे हर ओर रौनक़ों के रंगीन मेले ,

कहीं  मय्यसर नही  दिन  को भी  उजाले । 


कहीं ज़िन्दगी महकती खिलखिलाती है

कहीं टूटे ख्वाबों की चुभती किरचियाँ है । 


कहीं कोई चैन और सुकून से सो रहा  है,

कहीं कोई नींद से बिछुड़ कर रो रहा है।


कहीं खनकते सिक्कों की  खन-खन है,

कहीं कोई अपनी ही मैयत  को ढो रहा है । 


              कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

7 comments:

  1. जब से इंसान सभ्य हुआ है शायद तभी से यह विडंबना भी रही है

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  2. लाजवाब👌👌👌👌

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 11 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. बहुत ही बेहतरीन रचना सखी

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  5. जीवन की इन विसंगतियों के साथ ही जीना होता है ...
    इतना आसान नहीं होता जीना ... गहर बात .... बाखूबी कही बात ...

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