Monday, 24 August 2020

प्रारब्ध

 प्रारब्ध


चंचल चाँद रजत का पलना 

 मंदाकिनी गोद में सोता ।


राह निहारे एक चकोरी  

कब अवसान दिवस का होगा

बस देखना प्रारब्ध ही था

सदा विरह उसने है भोगा

पलक पटल पर घूम रहा है

एक स्वप्न आधा नित रोता।।


विधना के हैं खेल निराले 

कोई इनको कब जान सका

जल में डोले शफरी प्यासी 

सुज्ञानी  ही पहचान सका

है भेद कर्म गति के अद्भुत 

वही काटता जो है बोता।।


सागर से आता जल लेकर 

बादल फिरता मारा मारा‌

लेकिन पानी रोक न पाता

चोट झेलता है बेचारा

प्रहार खाकर मेघ बरसता 

बार बार खाली वो होता।‌


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'


रात सदा रात होती है

 रात सदा रात होती है।


रोशनी होना ही तो दिन नही है

रात सदा रात होती है,

चाहे चंद्रमा अपने शबाब पर हो 

प्रकाश की अनुपस्थिति अँधेरा है,

पर प्रकाश होना भर ही रात का अंत नही होता ।

निशा का गमन सूरज के आगमन से होता है ।

कृत्रिम रोशनी या चाँद का प्रकाश 

अँधेरे दूर  करते हैं रात नही।


             कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 17 August 2020

समय औचक कोड़ा

 समय औचक कोड़ा


गूंज स्वरों की मौन हुई जब

पाहन हुवा धड़कता तन।

मानस से उद्गार गये तो

चमन बना ज्यों उजड़ा वन।


नित नव सरगम रचता अंतस

हर इक सुर महका महका।

हिया सांरगी मौन हुई तो

गीत बने बहका बहका।

कैसे कोई तान छेड़ दे

फूट रहा हो जब क्रन्दन।।


मन की धुनकी धुनके थम थम

तान तार में सुर अटका।

टूट गया जो घिसते घिसते

बुझता अंगारा चटका।

कौन करेगा बातें कल की

आज अभी कर लो वंदन।।


समय दासता करता किसकी

औचक ही कोड़ा लगता। 

सिर ताने चलने वाला भी

ओधे मुंह गिरा करता।

मौका रहते साज साध लें

गीत महकते बन उपवन।।


कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

Sunday, 16 August 2020

बस एक मुठ्ठी आसमां

 बस एक मुठ्ठी आसमां


आकर हाथों की हद में सितारे छूट जाते हैं

हमेशा ख़्वाब रातों के सुबह में टूट जाते हैं। 


मंजर खूब लुभाते हैं, वादियों के मगर,

छूटते पटाखों से भरम बस टूट जाते हैं । 


चाहिए आसमां बस एक मुठ्ठी भर फ़कत,

पास आते से नसीब बस रूठ जाते हैं । 


सदा तो देते रहे आम औ ख़ास को मगर,

सदाक़त के नाम पर कोरा रोना रुलाते हैं।


तपती दुपहरी में पसीना सींच कर अपना,

रातों को खाली पेट बस सपने सजाते हैं।

            

           कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'।

Friday, 14 August 2020

तिरंगे की शान में

14/14 तिरंगे की शान में  सिर्फ अब न वादे होंगे  जीत की आशा फलेगी। ठान ले हर देश वासी रात तब गहरी ढलेगी।  लाखों की बलिवेदी पर  तिरंगे का इतिहास है। खोये कितने ही सपूत  जाकर मिला ये हास है। हर दिल में अब शान और मान की होली जलेगी।  मर्म तक कोई न भेदे   अब भी समय है हाथ में। हर दिशा में शत्रु फैले कर सामना मिल साथ में। आजादी की कीमत जब हर एक जन में पलेगी।  दुष्कर करदो जीना अब जो अमन को घायल करे। जीना वो जीना जानों हित देश के जीये मरे । ध्वज तिरंगा हाथ लेकर, इक हवा फिर से चलेगी।।  कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'












         तिरंगे की शान में


सिर्फ अब न वादे होंगे

 जीत की आशा फलेगी।

ठान ले हर देश वासी

रात तब गहरी ढलेगी।


लाखों की बलिवेदी पर

 तिरंगे का इतिहास है।

खोये कितने ही सपूत 

जाकर मिला ये हास है।

हर दिल में अब शान और

मान की होली जलेगी।


मर्म तक कोई न भेदे  

अब भी समय है हाथ में।

हर दिशा में शत्रु फैले

कर सामना मिल साथ में।

आजादी की कीमत जब

हर एक जन में पलेगी।

 

दुष्कर करदो जीना अब

जो अमन को घायल करे।

जीना वो जीना जानों

हित देश के जीये मरे ।

ध्वज तिरंगा हाथ लेकर,

इक हवा फिर से चलेगी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 12 August 2020

हरि कब आवोगे

 



जन्म दिवस तो नंद लाल का

हर वर्ष हम मनाते हैं,
पर वो निष्ठुर यशोदानंदन
कहां धरा पर आते हैं ,
भार बढ़ा है अब धरणी का
पाप कर्म इतराते हैं,
वसुधा अब वैध्व्य भोगती
कहां सूनी मांग सजाते हैं,
कण कण विष घुलता जाता
संस्कार बैठ लजाते हैं,
गिरावट की सीमा टूटी
अधर्म की पौध उगाते हैं,
विश्वास बदलता जाए छल में
धोखे की धूनी जलाते हैं,
मान अपमान की बेड़ी टूटी 
लाज छोड़ भरमाते हैं,
नैतिकता और सदाचार का
फूटा ढ़ोल बजाते हैं,
शरम हया के गहने को
बीते युग की बात बताते हैं,
चीर द्रोटदी का अब छोटा
दामोदर कहां बढ़ाते हैं,
काम बहुत ही टेढ़ा अब तो
भरे सभी के खाते हैं,
सर्वार्थ लोलुपता ऐसी फैली
भूले रिश्ते और नाते हैं,
ढोंग फरेब का जाल बिछा 
झुठी भक्ति जतलाते हैं,
मंच चढ़े और हाथ में माइक
शान में बस इठलाते हैं,
त्रसित है जग सारा अब तो
दर्द की चरखी काते है
आ जाओ करूणानिधि
अब हाथ जोड़ बुलाते हैं ।।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Sunday, 9 August 2020

विसंगतियाँ

विसंगतियाँ


कहीं उजली,  कहीं स्याह अंधेरों की दुनिया ,

कहीं आँचल छोटा, कहीं मुफलिसी की दुनिया। 


कहीं  दामन में चाँद और  सितारे भरे हैं ,

कहीं ज़िन्दगी बदरंग धुँआ-धुआँ ढ़ल रही है ।


कहीं हैं लगे हर ओर रौनक़ों के रंगीन मेले ,

कहीं  मय्यसर नही  दिन  को भी  उजाले । 


कहीं ज़िन्दगी महकती खिलखिलाती है

कहीं टूटे ख्वाबों की चुभती किरचियाँ है । 


कहीं कोई चैन और सुकून से सो रहा  है,

कहीं कोई नींद से बिछुड़ कर रो रहा है।


कहीं खनकते सिक्कों की  खन-खन है,

कहीं कोई अपनी ही मैयत  को ढो रहा है । 


              कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 7 August 2020

सीप की व्यथा

 सीप की व्यथा


हृदय में लिये बैठी थी

एक आस का मोती,

सींचा अपने वजूद से,

दिन रात हिफाजत की

सागर की गहराईयों में,

जहाँ की नजरों से दूर,

हल्के-हल्के लहरों के

हिण्डोले में झूलाती,

साँसो की लय पर

मधुरम लोरी सुनाती

पोषती रही सीप

अपने हृदी को प्यार से

मोती धीरे-धीरे

शैशव से निकल

किशोर होता गया,

सीप से अमृत पान

करता रहा तृप्त भाव से

अब यौवन मुखरित था

सौन्दर्य चरम पर था

आभा ऐसी की जैसे

दूध में चंदन दिया घोल

एक दिन सीप

एक खोजी के हाथ में

कुनमुना रही थी

अपने और अपने अंदर के

अपूर्व को बचाने

पर हार गई उसे

छेदन भेदन की पीडा मिली

साथ छूटा प्रिय हृदी का 

मोती खुश था बहुत खुश

जैसे कैद से आजाद

जाने किस उच्चतम

शीर्ष की शोभा बनेगा

उस के रूप पर

लोग होंगे मोहित

प्रशंसा मिलेगी

हर देखने वाले से 

उधर सीपी बिखरी पड़ी थी

दो टुकड़ों में

कराहती रेत पर असंज्ञ सी

अपना सब लुटा कर

व्यथा और भी बढ़ गई

जब जाते-जाते

मोती ने एक बार भी

उसको देखा तक नही,

बस अपने अभिमान में

फूला चला गया

सीप रो भी नही पाई

मोती के कारण जान गमाई

कभी इसी मोती के कारण

दूसरी सिपियों से

खुद को श्रेष्ठ मान लिया

हाय क्यों मैंने!! 

स्वाति का पान किया ।।


         कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 5 August 2020

ऋतु का रंग

 ऋतु का रंग
एक मिट्टिका का कण बिखरा 
ठहर गया था पात अनी
भानु उर्मि उसपर लहराई 
चमक रही ज्यों हीर कनी ।

उपवन फूले मदमाए से
ऋतु का रंग चढ़ा भारी
फोड़ गया कोई मतवाला
सुधा भरी गगरी सारी
भीग गई फिर सभी दिशाएं
कुसुमधूलि जो पुहुप जनी।।

श्यामल मधुकर ड़ोल रहा था
मद पीने को भरमाया
पुष्प महकते सौरभ भीनी
उसकी क्यों काली काया
चंचल तितली कलियाँ महकी
आकर्षण का केन्द्र बनी ।।

माटी निखरी धुली धुली सी
दुर्वा लहराई धानी
ऊपर देखा घटा अश्व पर
चढ़कर बैठा सुर मानी
रिमझिम बरसी बरखा रानी
छतरी की फिर ड़ाड़ तनी।।

कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Saturday, 1 August 2020

पदचिन्ह



विरानों में पदचिन्ह

विराने समेटे कितने पदचिन्ह
अपने हृदय पर अंकित घाव
जाता हर पथिक छोड छाप
अगनित कहानियां दामन में
जाने अन्जाने राही छोड जाते
एक अकथित सा अहसास
हर मौसम गवाह बनता जाता
बस कोई फरियादी ही नही आता
खुद भी साथ चलना चाहते हैं
पर बेबस वहीं पसरे रह जाते हैं
कितनो को मंजिल तक पहुंचाते
खुद कभी भी मंजिल नही पाते
कभी किनारों पर हरित लताऐं झूमती
कभी शाख से बिछडे पत्तों से भरती
कभी बहार , कभी बेरंग मौसम
फिर भी पथिक निरन्तर चलते
नजाने कब अंत होगा इस यात्रा का
यात्री बदलते  रहते निरन्तर
राह रहती चुप शांत बोझिल सी।

विराने समेटे..
             कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'